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बाल की खाल

हमारी हथेली पर बाल क्यों नहीं उगते ? एक दिन राजा कृष्णदेव राय ने राजदरबार में तेनालीराम से पूछा।
महाराज! आपके हाथ सदा गरीबों को दान – दक्षिणा देने में व्यस्त रहते हैं।
रगड़ खाने के कारण आपकी हथेलियों के बाल झड़ गये हैं। तेनाली ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया।
राजा कृष्णदेव राय तेनाली के उत्तर से प्रसन्न हुए, परन्तु कुछ ही देर में उसके दिमाग में फिर एक प्रश्न कुलबुलाया।
उन्होंने तेनाली से दोबारा पूछा अगर ऐसी बात है, तो तुम्हारी हथेली पर बाल क्यों नहीं हैं।
महाराज! मैं आपसे लगातार ईनाम, दान, दक्षिणा पाता रहता हूँ।
इसलिए मेरी हथेलियों के बाल भी उनसे रगड़ कर झड़ गये हैं। तेनाली ने राजा को समझाया।
पर राजा कृष्णदेव इतनी आसानी से मानने वाले नहीं थे। उन्होंने फिर पूछा, अगर ऐसी बात है, तो इस सब दरबारियों की हथेलियों पर बाल क्यों नहीं हैं ?
महाराज ! साधारण-सी बात है, जब आप मुझे लगातार ईनाम, दान, दक्षिणा देते रहते हैं।
आपस में रगड़ने के कारण इनकी हथेलियों पर भी बाल नहीं बचे हैं।
तेनालीराम ने मजे में कहा। तेनालीराम की बात पर राजा ठठाकर हंस पड़े और सभी राजदरबारियों के उतरे हुए मुँह देखने लायक थे।

गागर में सागर

वासुराव तेनाली का घनिष्ठ मित्र था। वह छोटे से घर में रहता था।
वह चाहता था कि बिना पैसा खर्च किये उसका छोटा-सा घर किसी तरह बड़ा हो जाये।
कोई उपाय न मिलने पर वह एक दिन अपने मित्र तेनालीराम के पास गया और उसे अपनी परेशानी बतायी।
तेनालीराम ने कहा, तुम्हारी परेशानी का हल मेरे पास है, लेकिन तुम्हें बिल्कुल वैसा ही करना होगा, जैसा मैं कहूंगा। वासुराव ने हामी भर दी।
ऐसा करो वासु! तुम्हारे बाड़े में जो मुर्गियाँ, भेड़, घोड़ा, सुअर और गायें हैं, उन्हें अपने घर के अंदर ले आओ।
आज से वे सब बाड़े में नहीं घर में तुम्हारे साथ रहेंगे। तेनाली से वासु से कहा।
यह कैसा उपाय है ? तेनाली का दिमाग तो नहीं चल गया। वासु ने सोचा। परन्तु वह तेनाली को वचन दे चुका था, तो मरता क्या न करता।
तेनाली की बात मान कर वसु उन सभी जानवरों को अपने घर के भीतर ले आया। अब तो कमरे में हिलने की भी जगह नहीं बची थी। दो दिन बाद वह वापस तेनाली के पास गया और अपना दुखड़ा रोने लगा। मित्र, कहा फंसा दिया। अब तो उस घर में सांस भी नहीं ली जाती।
घबराओ मत। घर जाकर उन सभी जानवरों को वापस उनके बाड़े में पहुंचा दो। तेनाली ने शांतिपूर्वक जवाब दिया।
वासुराव तुरंत घर लौटा और उन सभी जानवरों को वापस उनके बाड़े में पहुंचा दिया।
लौटकर जब वह अपने घर में घुसा, तो कमाल ही हो गया था। जानवरों के बाहर निकलते ही उसका घर बड़ा और शांत लगने लगा था।
इस प्रकार बिना एक भी पैसा खर्च किये तेनाली ने उसकी समस्या का समाधान कर दिया था।

नये आयाम

एक बार राजा कृष्ण देव राय को काली खांसी हो गयी।
काफी इलाज करने के बाद भी खांसी जा रही थी। महाराज को खट्टी चीजें खाने का शौक था।
वे भोजन के साथ खट्टा दही, खट्टा मट्ठा, आचार आदि अवश्य खाते थे। इन सबसे उनकी खांसी बिगड़ती ही जा रही थी।
वैद्यों ने राजा को कुछ दिनों के लिए खट्टे भोज्य-पदार्थों से परहेज करने को कहा ताकि उनकी दी हुई दवा अपना असर दिखा सके, परन्तु राजा ने उनकी एक न सुनी।
थक-हार कर राजवैद्य ने दरबारी विदूषक तेनालीराम को बुलाया और उसे अपनी समस्या बतायी। तेनाली ने राजवैद्य की बात सुनी और शीघ्र ही इस समस्या का समाधान करने का आश्वासन देकर चला गया।
अगले दिन दरबार में आने पर तेनाली ने राजा से कहा, महाराज! कल मैं बेलामाकोण्डा के जाने-माने वैद्य से मिला था। उनसे मैं ने आपकी खांसी का जिक्र किया, तो उन्होंने उसके लिए एक इलाज बताया है।
उन्होंने आपको सब कुछ खाने की अनुमति दे दी है। आप अपना मनपसन्द खट्ठा भोजन भी कर सकते हैं।
इसके बाद तेनाली ने अपनी जेब में हाथ डाल कर एक दवा निकाल कर राजा को दे दी। राजा ने कुछ दिन वह दवा खायी और साथ सी वे खट्ठी चीजें भी खाते रहे।
कुछ दिन पश्चात तेनाली ने राजा कृष्ण देव राय से पुनः उनकी तबियत के विषय में पूछा।
खांसी बढ़ी तो नहीं है परन्तु कम भी नहीं हो रही है।
राजा ने बताया तेनाली बोला, आप इस दवाई के साथ खट्ठे भोज्यपदार्थ लगातार खा रहे हैं। इससे आपको तीन फायदे होंगें।
वो क्या ? राजा ने उत्सुकता से पूछा।
सर्वप्रथम, इस दवा को खट्ठी चीजों के साथ लेने वाले के घर में कभी चोरी नहीं होती है। दूसरे उसे कभी कुत्ता नहीं काटता। तीसरे उसे कभी बुढ़ापा नहीं आता। तेनाली ने राजा को बताया।
यह तो बड़ी अच्छी बात है। परन्तु खट्ठे भोज्यपदार्थ खाने का इन चीजों से क्या संबंध है, यह मैं समझा नहीं। राजा ने पूछा।
जब कोई मनुष्य खट्ठे भोजन के साथ यह दवाई खायेगा, तो उसकी खांसी कभी ठीक नहीं होगी।
वह दिन-रात खांसता रहेगा तो उसके घर में चोर घुसने का सवाल ही नहीं उठता। खांसते-खांसते एक दिन उसका शरीर कमजोर हो जायेगा तो उसे लाठी लेकर चलना पड़ेगा।
उस लाठी के डर से कोई कुत्ता उसके नजदीक भटकेगा भी नहीं। इस प्रकार खांसी की बीमारी के चलते वह मनुष्य अपनी जवानी में ही चल बसेगा, तो बुढ़ापे का मुँह कहा से देखेगा ?
तेनाली ने महाराज को समझाया। तेनाली के शब्दों ने राजा कृष्णदेव राय को निरुत्तर कर दिया। वे तेनाली के शब्दों में छिपे गूढ़ अर्थ को भांप चुके थे।
कुछ समय के लिए ही सही राजा ने खट्टे पदार्थों से तौबा कर ली और खांसी का सही इलाज करवाया। जल्दी ही वे बिल्कुल स्वस्थ हो गये।

स्वर्ग का रास्ता

एक बार हम्पी के पास वाले गाँव में एक साधु आया।
उस साधु ने कई चमत्कार दिखाये और उपदेश दे कर भोले-भाले गांव वालों पर अपना प्रभाव जमा लिया। वह साधु एक मंदिर में ठहरा था।
जब तेनालीराम को उस साधु के विषय में पता लगा तो उसे कुछ शक हुआ। दिन चढ़ते ही तेनालीराम मंदिर में जा पहुंचा और अन्य गांव वालों के साथ उस साधु के निकट ही बैठ गया।
चमत्कारी साधु एक चबूतरे पर बैठा था। वहीं बैठकर वह कोई श्लोक पढ़ता और चमत्कार दिखाता।
कुछ देर बाद तेनाली को लगा कि यह साधु तो एक ही श्लोक बार-बार पढ़े जा रहा है। उसके चमत्कार भी कोई ख़ास नहीं थे, मात्र हाथ की सफाई थी।
अब तेनाली का शक यकीन में बदल गया कि यह कोई बहुरुपिया है, जो साधु के वेश में लोगों को ठगने आया है।
कुछ सोच-विचार कर तेनाली एकदम से साधु की और झुका और उसकी सफेद दाढ़ी का एक बाल तोड़ लिया। उस बाल को हाथ में लेकर तेनाली जोर-जोर से चिल्लाने लगा, मिल गया …. मिल गया।
मुझे स्वर्ग का रास्ता मिल गया। अब मैं सीधे स्वर्ग जाऊंगा।
गांव वाले भौचक्के-से तेनालीराम की और देखते रह गये। ये साधु महाराज कोई आम साधु नहीं हैं।
ये तो इस दुनिया में सबसे पहुंचे हुए साधु हैं। ये इतने महान हैं कि इनकी दाढ़ी का एक बाल तोड़ कर कोई अपने पास रख ले तो उसका बेड़ा पार हो जाये। साधु की दाढ़ी का बाल दिखाते हुए तेनाली ने गाँव वालों से कहा।
अब क्या था। …… लोगों में साधु की दाढ़ी का बाल तोड़ने की होड़ लग गयी। लपक कर सभी गाँव वाले साधु की लहराती दाढ़ी पर लटक गये।
बेचारे साधु महाराज की तो जान पर बन आयी। अपना लोटा-कमण्डल छोड़, वे तो दम दबा कर ऐसे भागे कि फिर पलट के भी नहीं देखा।

किसका बटुआ

एक बार हम्पी के बाजार में किसी का बटुआ गिर गया जो एक भिखारी को मिला।
बटुआ खोलने पर भिखाड़ी ने पाया कि उसमे सौ स्वर्णमुद्राएँ थी।
तभी भिखारी ने एक व्यापारी को चिल्लाते हुए सूना, जो कह रहा था, मेरा बटुआ खो गया है। जो ढूंढ कर देगा मैं उसे ईनाम दूंगा।
भिखारी ईमानदार इनसान था। वह व्यापारी के पास गया और उसे बटुआ वापस करके अपना ईनाम माँगा।
ईनाम! व्यापारी जल्दी-जल्दी स्वर्णमुद्राएँ गिनता हुआ बोला, तुझे इनाम नहीं, तुझे तो मैं पुलिस को दूंगा। इस बटुए में दो सौ स्वर्णमुद्राएँ थी। तू पहले ही इसमे से सौ स्वर्णमुद्राएँ चुरा चुका है। तेरा ईनाम कैसा ?
मैं ईमानदार आदमी हूँ, चोर नहीं। भिखारी बहादुरी से बोला, चलिए मैं खुद ही राजदरबार में चलता हूँ। महाराज ही इसका न्याय करेंगे।
दोनों राजदरबार में पहुंचे और वहां जाकर अपनी-अपनी बात राजा कृष्णदेव राय के सम्मुख कही। सारी बात सुनकर महाराज ने तेनालीराम से इसका फैसला करने को कहा।
तेनालीराम ने कुछ देर पुरे मसले पर विचार किया, फिर बोला, महाराज मेरे विचार से ये दोनों ही सच बोल रहे है।
व्यापारी तुमने कहा कि तुम्हारे बटुए में दो सौ स्वर्णमुद्राएँ थी, जबकि इस बटुए में मात्र सौ स्वर्णमुद्राएँ ही हैं। भिखारी स्वर्णमुद्राएँ इतनी जल्दी कहीं नहीं छुपा सकता और वह भी गिनकर पूरी सौ।
तो मेरे विचार में यह बटुआ ही तुम्हारा नहीं है।
महाराज ने तेनाली के फैसले को सही ठहराते हुए सौ स्वर्णमुद्राओं से भरा बटुआ भिखारी को सौंप दिया।

पांच वाणी

तिरुमल तेनालीराम का गहरा मित्र था।
हम्पी राज्य में उसकी एक बहुत मशहूर सराय थी, जिसका नाम था ” दक्षिण का सूर्य ” तिरुमल अपनी सराय से बहुत परेशान था।
उसकी सराय में सभी सुविधाएँ थी, भोजन बहुत स्वादिष्ट था, रहने-सोने की बेहतरीन व्यवस्था थी, साफ़-सुथरी थी, पर फिर भी उतने ग्राहक नहीं आते थे, जितने आने चाहिए थे। सराय बमुश्किल अपनी खर्चा निकाल पा ही रही थी।
थक हार कर तिरुमल ने एक दिन अपने मित्र तेनालीराम की सलाह लेने की सोची।
तेनाली ने तिरुमल की पूरी बात ध्यान से सुनी और बोला, यह तो बहुत आसान है। तुम सराय का नाम बदल दो। असम्भव। तिरुमल ने कहा, की पीढ़ियों से यह सराय पुरे विजयनगर राज्य में इसी नाम से मशहूर है।
वह सब मैं नहीं जनता। अगर इस सराय को बढ़िया तरिके से चलाना चाहते हो, तो इसका नाम बदल दो।
इसका नाम रखो ‘पंच वाणी’ और सराय के मुख्य द्वार पर छः बड़ी-बड़ी घण्टियाँ टाँग दो।
तेनालीराम ने कहा।
छः बड़ी घण्टियाँ! क्या कह रहे हो मित्र ! यह तो बड़ी अजीब बात है। नाम है-पंच वाणी और घण्टियाँ टांगू छः। तिरुमल के अचरज का ठिकाना नहीं था।
करके तो देखो, फिर बताना। तेनालीराम ने मुस्कुराते हुए कहा।
खैर, तिरुमल ने वैसा ही किया जैसा तेनाली ने कहा था और फिर कुछ ऐसा हुआ …
सराय के सामने से गुजने वाला-जो भी यात्री सराय का नाम पढ़ता और छः घंटियाँ देखता, वह झट से सराय के मालिक को नाम सही करने की सलाह देने के इरादे से सराय में घुस जाता।
हर कोई यही सोचता कि उससे पहले शायद किसी ने यह गलती पकड़ी ही नहीं है।
सराय के भीतर की साफ़-सफाई और मालिक की मेहमान नवाजी से खुश होकर अधिकतर यात्री वहीं ठहर जाते।
जल्द ही तिरुमल की सराय हम्पी की सबसे बड़ी सराय बन गयी। वहां हर समय यात्रियों का ताँता लगा रहता।
तेनालीराम की जरा सी चतुराई ने तिरुमल की किस्मत ही पलट डाली।

 

बैंगन की सब्जी

राजा कृष्णदेव राय के निजी बगीचे में बैंगन के पौधे थे, जो बिना बीज के थे।
राजा की आज्ञा के बिना न तो कोई उस बगीचे में जा सकता था, न ही कोई फल तोड़ सकता था। राजा कृष्णदेव राय के अतिरिक्त किसी ने वे बैंगन नहीं चखे थे।
एक दिन राजा कृष्णदेव राय ने सभी दरबारियों को राजमहल में दावत पर बुलाया।
दावत में बिना बीज वाले उन ख़ास बैंगनों का सालन भी बना था।
तेनालीराम को वह इतना पसन्द आया कि घर लौट कर भी वह उसी की बात करता रहा। तेनाली से उन बैगनों की इतनी तारीफ सुनकर उसकी पत्नी ने भी बैगन खाने की इच्छा प्रगट की।
लेकिन मैं वे बैंगन तुम्हारे लिए कैसे ला सकता हूँ। तेनालीराम अपनी पत्नी से बोला, अरे महाराज को वे बैंगन इतने प्रिय है कि पेड़ से एक भी कम हो जाये, तो वे पूरा राजमहल सर पर उठा लेते हैं।
मै तो रंगे हाथों पकड़ा जाऊंगा। पर तेनाली की पत्नी न मानी। स्त्री हठ के आगे तेनाली को झुकना ही पड़ा और वह शाही बगीचे से बैंगन चुरा कर लाने के लिए तैयार हो गया।
अगले दिन शाम के समय तेनालीराम चुपके से शाही बगीचे में घुसा और कुछ बैंगन तोड़ लाया।
उसकी पत्नी ने बड़ी लगन से बैंगन की सब्जी बनायी। सब्जी बहुत अच्छी बनी थी, तेनाली की पत्नी को बहुत पसंद आयी। वह अपने छः साल के बेटे को भी वह सब्जी चखाना चाहती थी, पर तेनाली ने उसे मना करते हुए कहा, ऐसी गलती मत करना।
अगर उसके मुहं से किसी के सामने निकल गया, तो मुसीबत में पद जायेंगे।
पर तेनाली की पत्नी न मानी, यह कैसे हो सकता है कि वह इतना बढ़िया भोजन करे और अपने लाल को चखाये भी नहीं।
इस सब्जी का स्वाद तो ताउम्र जुबान पर रहेगा। आप कोई तरकीब निकालो न जिससे सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे।
हारकर तेनालीराम ने हथियार डाल दिये और छत पर सो रहे अपने पुत्र को उठाने गया। परन्तु उसे उठाने से पहले, तेनाली ने एक बाल्टी पानी से भरी और सोते हुए पुत्र पर डाल दी।
हड़बड़ा कर उसने आँखे खोल दी, तो उसे गोदी में उठाते हुए तेनालीराम बोला, जोर की बारिश हो रही है। चल भीतर चल कर सोते हैं।
घर के भीतर लाकर तेनालीराम ने उसके वस्त्र बदले और उसे बैंगन की सब्जी खिलायी। भोजन करते समय तेनाली ने फिर याद दिलाया कि वर्षा के कारण अब सबको भीतर ही सोना पड़ेगा।
अगले दिन राजा को बैंगन की चोरी के विषय में पता चल गया। शाही बगीचे के माली ने जब बैंगन की गिनती की तो उसमें चार बैंगन कम निकले।
चारों ओर शोर मच गया। पूरे शहर में बैंगन चोरी होने की चर्चा होने लगी। महाराज ने चोर के सिर पर भारी ईनाम घोषित किया।
न जाने कैसे दण्डनायक सेनापति को तेनालीराम पर शक हो गया। उसने महाराज को अपने शक के बारे में बताया।
उसके अनुसार तेनालीराम के अतिरिक्त किसी में इतना साहस नहीं है कि शाही बगीचे से बैगन चुरा सके।
महाराज ने कहा, तेनालीराम बहुत चतुर है। यदि उसने चोरी की है, तो वह अपनी चालाकी से बात छुपा जाएगा। ऐसा करो, तेनाली के पुत्र को बुलाओ। हम उसके पुत्र से सच्चाई का पता लगायेंगे।
तेनालीराम के पुत्र को राजदरबार में लाया गया। उससे पूछा गया कि उसने कल रात को भोजन में क्या खाया था। वह बोला, मैंने कल रात को बैंगन खाये थे।
वे इतने स्वादिष्ट थे कि उनका जवाब नहीं था।
अब तो दण्डनायक ने तेनाली को धर दबोचा। तेनाली! अब तो तुम्हें अपना अपराध मानना ही पड़ेगा।
क्यों ? मैंने कुछ किया ही नहीं है, तो मैं अपराध क्यों मानूं ? तेनाली बोला, कल रात मेरा बेटा जल्दी ही सो गया था।
ऐसा प्रतीत होता है कि उसने कोई सपना देखा है, तभी वह बैंगन, बारिश आदि जैसी नामुमकिन बातें कर रहा है। पूछिये उससे क्या कल रात बारिश हुई थी ?
दण्डनायक ने बच्चे से बारिश के विषय में पूछा, तो बच्चे ने भोलेपन से जवाब दिया, कल रात तो बहुत तेज वर्षा हुई थी। मैं बाहर सो रहा था। मेरे सारे वस्त्र भींग गये। इसके बाद मैं भीतर आकर सोया।
वास्तविकता तो यही थी कि पिछली रात शहर में एक बूँद भी वर्षा नहीं हुई थी।
बच्चे की बात सुनकर दण्डनायक और राजा कृष्णदेव राय चुप हो गये और उन्होंने तेनालीराम पर शक करने के लिए माफ़ी मांगी।

 

मिठाई की जड़

विजयनगर साम्राज्य के चीन, श्रीलंका आदि देशों से अच्छे व्यापारिक संबंध थे। विदेशी यात्री और व्यापारी लगातार विजयनगर आते जाते रहते थे।
व्यापर बहुत चल रहा था।
एक बार रसूल नाम का एक व्यापारी ईरान से भारत आया था। वह राजा कृष्णदेव राय से भी मिलने आया।
राजा की ओर से उसके ठहरने का इंतजाम शाही मेहमानखाने में किया गया। राजा ने उसका ख़ास ध्यान रखने का आदेश दिया।
दिन में रसूल हम्पी घूमने निकला। खेतों की हरियाली, ऊँचे-ऊँचे दरख्त गन्ने की फसल आदि देखकर रसूल अचम्भित रह गया, क्योंकि उसके देश में ऐसी हरियाली कहीं भी देखने को नहीं मिलती थी।
उस रात भोजन के बाद राजा कृष्णदेव राय ने रसोइए को आदेश दिया कि वहाँ की मशहूर मिठाइयाँ जैसे कि पूरनपोली, मैसूर पाक, श्रीखण्ड, मोदक आदि रसूल को चखायी जाये। रसोइए ने ऐसा ही किया, पर रसूल ने उनमें से एक भी मिठाई नहीं छुई। राजा को बहुत आश्चर्य हुआ।
तभी रसूल ने रसोइए से कहा, भाई, मुझे इन सबकी जड़ लाकर दो। मैं उन्हें चखूँगा।
रसोइया हैरानी से राजा की आरे देखने लगा। मैसूर पाक, श्रीखंड, पूरन पोली की जड़ें……… !!!!!! राजा कुछ समझ नहीं पा रहे थे कि रसूल क्या चाहता है ?
उन्होंने तो कभी भी इन मिठाइयों की जड़ों के बारे में नहीं सुना तो उन्होंने मेहमान से एक दिन का समय माँगा।
अगले दिन दरबार में राजा ने अपने दरबारियों से उन सभी मिठाइयों की जड़ें लाने को कहा। सभी दरबारी एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। मिठाइयों की जड़…….. ऐसा तो न कभी देखा सुना। राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम की ओर देखा।
तेनाली ने एक बड़ा कटोरा और लम्बी तेज छुरी मँगवाई और भीतर चला गया।
सभी दरबारी आश्चर्य से जाते हुए तेनाली की ओर देख रहे थे, क्योंकि इतना तो वे सब जानते थे कि मिठाइयों की कोई जड़ नहीं होती, फिर तेनाली कहाँ से जड़ निकालेगा।
एक घण्टे बाद तेनालीराम दरबार में वापस आया। उसके हाथ में कपड़े से ढका वही कटोरा था। वह राजा के पास गया और बोला, महाराज! ये रहीं पूरनपोली मैसूर पाक, श्रीखंड और मोदक की जड़ें।
सभी दरबारियों की आँखे खुली रह गयी। वे सब उचक-उचक कर कटोरे में झाँकने की कोशिश करने लगे, पर कटोरा तो कपड़े से ढका था।
तेनाली के आग्रह पर रसूल को दरबार में बुलाया गया। रसूल ने तेनाली से वह कटोरा लिया और उस पर ढका कपड़ा हटा कर उसमें रखी जड़ चखी।
वाह, महाराज! पूरनपोली, श्रीखण्ड मैसूर पाक और मोदक की जड़ तो अत्यंत मीठी हैं। ये ईरान में नहीं मिलती। इनके स्वाद के जादू ने मुझे तो अपना गुलाम बना लिया है।
आपके राज्य की मिठाइयों की जड़ तो मिठाई से भी ज्यादा मीठी है। मजा आ गया इन्हें खाकर।
रसूल को गन्ने का एक टुकड़ा मुहँ में डालते देख कर राजा और सभी दरबारियों के मुँह खुले रह गये।
इस सबसे बेखबर रसूल एक के बाद गन्ने के छोटे टुकड़े खाता जा रहा था, जिन्हें तेज छुरी से काट कर तेनालीराम ने कटोरे में भर कर रसूल को दिया था।
असलियत समझ में आते ही राजा मुस्कुरा उठे और उनके साथ ही सब दरबारियों के चेहरे खिल उठे। आज तेनालीराम की चतुराई ने विदेशी मेहमान के सम्मुख उनकी नाक कटने से बचा दी।

 

बात की बात

राजगुरु तथाचार्य तेनालीराम से बहुत चिढ़ते थे। वे तेनालीराम को नीचा दिखाने के मौके ढूंढते रहते थे।
एक दिन राजदरबार में महाराज और कुछ दरबारी प्रशासन संबंधी किसी मसले पर बातचीत कर थे, तभी अचानक तथाचार्य से मुखातिब हुए और मुस्कुराते हुए बोले, अरे तेनाली! जानते हो, मैंने तुम्हारे एक शिष्य के विषय में क्या सुना है ?
राजगुरु जी, जरा रुकिये। तेनाली ने हाथ उठाकर कहा, इससे पहले कि आप मुझे कुछ बताएँ, मैं आपसे कुछेक प्रश्न पूछना चाहता हूँ।
राजा कृष्णदेव राय और दरबारी भी अपनी बातचीत बीच में छोड़कर तेनालीराम और राजगुरु की बातें सुनने लगे।
प्रश्न…….. कैसे प्रश्न ?
राजगुरु तथाचार्य ने हैरानी से पूछा।
श्रीमान, मेरे किसी भी शिष्य के विषय में या अन्य किसी भी विषय पर बात करने से पूर्व पहले हमें उस बात की गहराई नाप लेनी चाहिए इसीलिए मैं ये दो-चार सवाल आपसे पूछंगा, जिसका जवाब आप मुझे दे दें फिर बात आगे बढ़ायेंगे।
मुझे यकीन है, इससे मेरा और आपका दोनों का समय बचेगा। मेरा आपसे पहला प्रश्न इस बात की सच्चाई के ऊपर है कि आप मुझे जो बात बताने जा रहे हैं, क्या आपने उसकी सत्यता की पूरी जाँच कर ली हैं ?
तेनाली ने पूछा। ऐसा कुछ नहीं है, मैंने तो सिर्फ यह बात सुनी है। राजगुरु ने कहा।
ठीक है तेनाली बोला, तो आप नहीं जानते कि यह बात सच है या नहीं।
यह एक अफवाह भी हो सकती है या गप भी हो सकती है।
तेनाली आगे बोला, अब मेरा दूसरा प्रश्न आपसे बात की अच्छाई पर है कि आप मेरे शिष्य के विषय में जो बात बताने जा रहे हैं, क्या वह अच्छी बात है ?
नहीं तेनाली बल्कि वह तो तथाचार्य ने बोलना चाहा, तभी तेनालीराम ने उन्हें टोकते हुए कहा, इसका मतलब है कि आप मुझे मेरे शिष्य के विषय में कोई बुरी बात बताने जा रहे हैं, जबकि आपके पास उसकी सच्चाई का कोई सबूत नहीं है।
तथाचार्य ने अपने कंधे उचकाते हुए सिर हिलाया। पर अब तक उनके चेहरे की मुस्कान गायब हो चुकी थी।
तेनाली ने आगे कहा, चलिए अब आते हैं, तीसरे प्रश्न पर जो बात की उपयोगिता पर है कि आप मुझे जो बात बताने जा रहे हैं, उसकी मेरे या आपके या शिष्य के लिए कितनी उपयोगिता है ?
ऐं पता नहीं। ……. राजगुरु हकलाने लगे।
तो श्रीमान यदि आप मुझे कोई ऐसी बात बताना चाहते हैं जिसकी आपको सच्चाई का पता नहीं है, जिसमें कोई अच्छाई नहीं है और जिसकी किसी के लिए कोई उपयोगिता नहीं है, तो आप ऐसी बात मुझे बताकर मेरा और दरबार में सबका समय क्यों व्यर्थ करना चाहते हैं ?
तेनालीराम ने पूछा। राजगुरु तथाचार्य के पास कोई जवाब नहीं था। महाराज और सभी दरबारियों के सम्मुख उनकी हेठी हो गयी थी। वे चुपचाप सिर झुका कर बैठ गये।

 

आम या कान ?

गरमी का मौसम था।
तेनालीराम से मिलने तंजौर के पास बसे छोटे से गाँव से एक दूर का रिश्तेदार आदिनारायण राव आने वाला था।
वह तेनालीराम की पत्नी का रिश्तेदार था। तेनालीराम की पत्नी मेहमान के स्वागत की तैयारियों में व्यस्त थी।
उसने तेनालीराम को दो पके हुए आम छीलन को दिये और आदिनारायण के आने पर उसे शरबत के साथ देने को बताकर वह भीतर चली गयी।
आम छीलते हुए तेनालीराम के मुँह में पानी भर आया। उससे रहा नहीं गया और उसने चुपचाप आम का एक टुकड़ा खा लिया।
आम बेहद मीठा था। अब तो तेनाली से रुका नहीं जा रहा था। एक-एक करके उसने दोनों आम खा लिये। जब तश्तरी खाली हुई, तब तेनाली को पता चला कि मेहमान के लिए तो आम बचा ही नहीं।
तभी तेनाली की नजर आदिनारायण पर पड़ी, जो उसके घर की ओर चला आ रहा था। तेनाली को एक तरकीब सूझी। उसने अंदर से जंग लगी एक छुरी उठायी और उसे लेकर अपनी पत्नी के पास गया और बोला, मैं इस छुरी से आम नहीं छील पा रहा हूँ, इसकी तो धार ही नहीं है।
लाओ मुझे दो! मैं अभी लगा लाती हूँ। छुरी लेकर तेनाली की पत्नी वहीं बरामदे में रखे पत्थर पर छुरी तेज करने लगी।
पत्नी को वहीं छोड़कर तेनालीराम मेहमान का स्वागत करने दरवाजे की ओर आ गया।
संभाल के भाई ! जरा ध्यान से सुनो। मेरी पत्नी पागल हो चुकी है। भीतर मत आना। वो तुम्हारे कान काटने की तैयारी कर रही है देखो। अपनी पत्नी की तरफ इशारा करते हुए तेनालीराम बोला।
क्या बोल रहे हो ? वो मेरे कान क्यों काटेगी ? आदिनारायण राव को यकीन नहीं हुआ, तुम झूठ बोल रहे हो, तेनाली।
मैं भला क्यों झूठ बोलूंगा। वो देखो खुद ही देख लो। वह तुम्हारे लिए ही इस छुरी को धार लगा रही है।
तेनाली ने अपनी पत्नी की और ईशारा करते हुए कहा, जो इसे सबसे बेखबर बरामदे में बैठी छुरी तेज कर रही थी।
जब आदिनारायण राव ने तेनाली की पत्नी कक्को पूरे जोश से छुरी में धार लगाते देखा तो उसने आव देखा न ताव और सर पर पैर रख कर वहां से भाग लिया।
अपनी हंसी रोकते हुए तेनालीराम वापिस अपनी पत्नी के पास गया और उसे बताया कि आदिनारायण राव आया था। और न जाने दोनों आम उठा कर भाग गया।
क्या ? भाग गया। तेनाली की पत्नी ने अचम्भे से पूछा, लालची कहीं का। उसका दिमाग फिर गया है क्या ?
दोनों आम ले गया ?
हाँ हाँ। अपनी हंसी दबाते हुए तेनाली गंभीरता से बोला।
उसकी ऐसी की तैसी। गुस्से में आग-बबूला होकर हाथ में पकड़ी छुरी घुमाती हुई तेनाली की पत्नी आदिनारायण की पीछे चिल्लाते हुए भागी अरे रुक! एक तो दे जा।
भागते हुए आदिनारायण राव ने उसका चिल्लाना सुना तो वह समझा कि तेनाली की पत्नी छुरी लेकर उसके कान काटने को आ रही है और धमकी दे रही है कि वह दोनों नहीं तो एक कान तो दे ही जाये।
आदिनारायण ने अपनी भागने की गति बढ़ायी और ये जा, वो जा।
तेनाली एक तरफ खड़ा खड़ा तमाशा देखता रहा और मन ही मन खुश होता रहा कि अपनी होशियारी से उसने दोनों आमों का मजा ले लिया बल्कि उनका इल्जाम भी दूसरे के सिर डाल दिया।
इसे कहते हैं चित भी मेरी, पट भी मेरी।

 

एक पहेली

राजा कृष्णदेव राय समय-समय पर अपने राज्य में घूमते रहते थे।
वे प्रजा की तकलीफें ध्यान से सुनते और उन्हें दूर करने का भरसक प्रयास करते अधिकतर ऐसे मौकों पर तेनालीराम उनके साथ होता था।
इसी तरह एक बार महाराज और तेनालीराम श्री रंगपट्ट्नम से गुजर रहे थे यह शहर विजयनगर की सेना ने हाल ही में जीता था। रास्ते में उन्हें एक किसान मिला।
महाराज ने तेनालीराम से कहा कि वह जाकर उस किसान से पता लगाये कि वह कितना कमाता है और उस पैसे को किस प्रकार खर्च करता है।
तेनालीराम उस किसान के पास गया और काफी देर तक उससे बात करता है। वापस लौट कर उसने महाराज को बताया।
महाराज! उस किसान के पास 16 से 18 एकड़ जमीन है।
एकड़ जमीन है। वह राज्य को भूमिकर देता है।
वह एक माह में चालीस स्वर्णमुद्राएँ कमाता है और उसका परिवार बहुत बड़ा है, जिसका कर्ता-धर्ता वह अकेला है।
अपनी कमाई की चलीस स्वर्णमुद्राएँ वह किस प्रकार खर्च करता है ?
महाराज ने तेनालीराम से पूछा।
दस मुद्राएं स्वयं पर दस मुद्राएं वह कृतज्ञता के लिए देता है, दस मुद्राओं से वह अपना कर्जा वापस देता है और दस मुद्राएं वह ब्याज पर देता है। तेनाली ने जवाब दिया।
महाराज को तो कुछ समझ में नहीं आया। उन्होंने तेनाली से साफ़-साफ़ बताने को कहा।
महाराज दस मुद्राएं वह स्वयं पर खर्च करता है, तेनाली ने कहा, दस मुद्राएं वह अपनी पत्नी पर खर्च करता है, उसका आभार व्यक्त करने के लिए क्योंकि वह उसके घर-परिवार का इतना ध्यान रखती है।
दस मुद्राएँ वह अपने माता-पिता पर कर्ज वह उतार रहा है। बाकी की दस मुद्राएं वह अपने बच्चों पर खर्च करता है और उम्मीद करता है कि बड़े होने पर उसके बच्चे उसका ध्यान रखेंगे।
इस प्रकार यह पैसा ब्याज में लगता ही तो हुआ।
अरे वह तेनाली ! तुमने तो बहुत बढ़िया पहेली बना दी है। फिर कुछ सोचकर महाराज दोबारा बोले, तेनाली! इसका उत्तर तब तक किसी को मत बताना, जब तक तुम मेरा चेहरा सौ बार न देख लो।
ठीक है महाराज! तेनाली ने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा।
उसी शाम को राजा कृष्णदेव राय ने ख़ास दरबार बुलवाया और दरबारियों तथा अष्टदिग्ग्जों के सम्मुख व्ही पहेली रख दी।
अष्टदिग्ग्जों की तो हालत खराब हो गयी। काफी दिमागी घोड़े दौड़ने पर भी उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा था। तब अष्टदिग्गज अलासनी पेद्द्न ने उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा कि वह एक दिन में इस पहेली का उत्तर ढूँढ लेगा।
पेद्द्न जानता था कि तेनालीराम महाराज के साथ गया था। उसने तेनाली से पूछा। पहले तो तेनाली ने बताने से मना कर दिया, पर जब पेद्द्न उसके पीछे ही पड़ गया, तो तेनाली ने उससे सौ स्वर्णमुद्राएँ देने को कहा।
पेद्द्न फटाफट एक थैली में सौ स्वर्णमुद्राएँ ले आया। तेनाली ने उसे सही जवाब बता दिया।
अगले दिन जब राजदरबार में पेद्द्न ने महाराज को सही जवाब दे दिया तो वे समझ गये कि तेनाली ने अपना वादा तोड़कर पहेली का जवाब पेद्द्न का बता दिया है।
गुस्से में भरकर राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम को बुलाया और उससे वादा तोड़ने का कारण पूछा।
तेनाली मैंने तुमसे कहा था कि जब तक तुम मेरा चेहरा सौ बार-न देख लो, तुम किसी को जवाब नहीं बताओगे। महाराज ने तेनाली से नाराज होते हुए कहा।
महाराज! मैंने अपना वादा निभाया है। मैंने पेद्द्न को जवाब बताने से पहले आपका चेहरा सौ बार देख लिया था। तेनाली ने मुस्कुराते हुए कहा, हुजूर! पेद्द्न ने मुझे सौ स्वर्णमुद्राएँ दी थी और हर स्वर्णमुद्राएँ पर आपका चेहरा है।
राजा कृष्णदेव राय निरुत्तर हो गये। फिर वे जोर से हँसे और तेनालीराम को उसकी चतुराई के लिए ढेर सारा इनाम दिया।

 

मिलावटी मिर्च

एक बार हम्पी में पेट की बीमारी महामारी की तरह फ़ैल गयी।
अनेकों लोग पेट में दर्द और मरोड़ की शिकायत करते पाए गये। राजा कृष्णदेव राय तक यह खबर पहुंची, तो वे चिंतित हो गये।
उन्होंने राजवैद्य को बुलाया और उससे पूरे मामले की तह में जाने को कहा। कुछ दिन बाद राजवैद्य ने राजा को बताया कि उसने अनेक मरीजों की जाँच की और पाया कि इन सभी रोगियों ने पीसी हुई काली मिर्च खायी थी।
जब राजवैद्य ने उसे मिर्च की जाँच करवाई तो उसमे बारीक पिसे पत्थर और चारकोल मिले। इसी से सब लोग बीमारी हो रहे थे।
राजवैद्य की बात सुनकर राजा कृष्णदेव राय गुस्से से आग-बबूला हो गया।
उन्होंने तुरंत उन सभी दुकानदारों को जेल में बन्द करने का आदेश दे दिया जो ऐसी मिर्च बेच रहे थे।
राज्यादेश का पालन हुआ और शीघ्र ही ऐसे सभी दुकानदार, जो मिलावटी काली मिर्च बेच रहे थे, जेल की सलाखों के पीछे थे। उन दुकानदारों के मित्रों और रिश्तेदारों ने महाराज से दया की, अपील की पर महाराज ने साफ़ इनकार कर दिया।
महाराज के पास से निराश लौटकर वे सभी लोग तेनालीराम की शरण में गये। उन्होंने कहा, हुजूर यह सजा सही नहीं है।
अपराधी तो कोई और है जिसकी सजा हमारे लोग भुगत रहे हैं। सजा तो पीसने वाले को मिलनी चाहिए, जिसने मिलावट की। दुकानदार तो वही बेचेगा, जो पिसाई वाला उसे देगा।
अब क्या बताएं हुजूर, वह पिसाई वाला जो काली-मिर्च सब दुकान पहुंचता है, राजगुरु जी का भाई है। उनके डर से हम यह बात महाराज से साफ़-साफ़ कह भी नहीं सकते।
कृपया आप ही कुछ कीजिये और इस समस्या का हल निकालिए।
तेनाली ने उनकी मदद करने का आश्वासन देकर उन्हें वापस भेज दिया। तेनालीराम काफी देर तक सोचता रहा, फिर वह तुंगभद्रा नदी के पास गया।
वहां मछुआरों की बस्ती थी। उस बस्ती के एक-एक घर में घुसकर तेनाली उन मिट्टी के मटकों को फोड़ने लगा, जिसमें पानी भरा था। जब मछुआरों ने तेनालीराम को इस प्रकार मटके फोड़ते देखा, वे उससे हाथ जोड़कर ऐसा न करने की विनती करने लगे।
परन्तु तेनालीराम ने उनकी एक न सुनी। जल्दी ही सारे शहर में अफवाह फ़ैल गयी कि तेनालीराम पागल हो गया है और वह घर-घर जाकर मटके फोड़ रहा है।
जब यह खबर राजा कृष्णदेव राय को मिली, तो उन्हें बड़ी चिंता हुई और साथ ही गुस्सा भी आया।
अपने रथ में बैठकर महाराज तुरंत मछुआरों की बस्ती में जा पहुंचे जहां तेनालीराम अब भी मटके फोड़ने में व्यस्त था।
उन्होंने कड़क कर तेनालीराम को आवाज दी, तेनाली! रुक जाओ। यह क्या पागलपन कर रहे हो ?
इन सबके घर में घुसकर मटके क्यों फोड़ रहे हो ?
महाराज! तेनालीराम बोला, मैं इन मटकों को सजा दे रहा हूँ। इनके भीतर तुंगभद्रा नदी का पानी है। अगर इसे पीकर कोई बीमार पद गया तो साडी इन मटकों की ही होगी।
अरे, तो गंदा पानी बहा दो न, मटके क्यों फोड़ रहे हो ? इन मटकों तक पहुंचने से पूर्व ही इस नदी का जल गँदला था। बेकार ही तुम इन बेचारे निर्दोष मछुआरों का नुकसान कर रहे हो। इनका क्या कसूर है ? राजा ने तेनाली को समझाया।
परन्तु महाराज! मैं तो वही कर रहा हूँ जो आपने किया था। आपने भी तो मिलावटी काली-मिर्च बेचने वाले दुकानदारों को जेल में डलवा दिया जबकि सजा तो पिसाई करने वाले को मिलनी चाहिए, जिसने ऐसी मिलावटी मिर्च पीस कर इनकी दुकानों पर भिजवाई।
वे दुकानदार तो निर्दोष हैं। वे तो मात्र उस मिर्च को अनजाने में बेच रहे थे। तेनालीराम ने महाराज से कहा।
तेनालीराम की बात सुनकर राजा कृष्णदेव राय को अपनी का अहसास हुआ और उन्होंने सभी निर्दोष दुकानदारों को उसी समय रिहा कर दिया और राजगुरु के भाई, जिसने मिलावटी काली मिर्च पीसकर उन दुकानदारों को दी थी, गिरफ्तार करने का आदेश दिया।

 

पोटली की रति

हम्पी में विरुपाक्ष मंदिर के सामने एक बूढी औरत की छोटी-सी दुकान थी जहाँ वह फूल माला आदि बेचा करती थी।
उसी थोड़ी-बहुत कमाई से उसकी रोजी-रोटी चलती थी।
एक दिन चार यात्री मंदिर में दर्शन के लिए आये। उन्होंने उस बूढी औरत से कुछ फूल खरीदे।
फूल खरीदते हुए उन्होंने उसे एक पोटली में बँधा अपना सामान देते हुए कहा कि वह इसे अपने पास रख ले और उन्हें तन ही लौटाये, जब चारों एक साथ लेने आयें।
कुछ देर बाद उनमें से एक यात्री लौट कर आया और चिकनी-चुपड़ी बातें करके बुढ़िया को बहका कर पोटली लेकर चला गया।
जब बाकी के तीनों यात्री बुढ़िया से पोटली लेने आये, तो उसने उन्हें बताया कि उनका चौथा मित्र वह पोटली लेकर जा चुका है।
उन तीनों यात्रियों ने बुढ़िया को बहुत डाँटा और उस राजदरबार में ले गये।
न्याय की फरियाद करते हुए उन्होंने राजा कृष्णदेव राय को पूरी बात बतायी। राजा ने उनकी फरियाद ध्यानपूर्वक सुनी और तेनालीराम को यह मसला सुलझाने का इशारा किया।
महाराज! इस बुढ़िया को हमारे सामान का हर्जाना तो चुकाना ही पड़ेगा। तीनों मित्र एक साथ चिल्लाये।
हर्जाना क्यों ? वह तुम्हें पोटली ही लौटा देगी। तेनालीराम ने उन्हें शांत होने का इशारा करते हुए कहा, शर्त वही है जो तुमने पोटली देने से पहले रखी थी।
वह पोटली तुम तीनों को नहीं देगी। बात चारों को देने की हुई थी, तो अपने चौथे मित्र को लेकर आओ और अपनी पोटली ले जाओ।
तेनालीराम की बात सुनकर तीनों यात्रियों के मुंह उतर गये। उनकी ही बात से तेनाली ने उन्हें फंसा दिया था।
अब वे कुछ कहने लायक नहीं रहे थे। अपना-सा मुहं लेकर वे तीनों यात्री वहां से चलते बने।

 

मुर्गी की कीमत

एक दिन तेनालीराम बाजार से गुजर रहा था। वहां उसने देखा कि मुर्गीखाने के सामने भीड़ लगी हुई है।
तेनाली ने वहां खड़े लोगों से पूछा कि वहाँ क्या हुआ है, जो इतनी भीड़ लगी है ? किसी ने तेनाली को बताया कि एक गरीब किसान गलती से जौ का भारी बोरा एक मुर्गी पर गिरा गया और मुर्गी मर गयी।
मुर्गी छोटी-सी थी। पांच सोने के सिक्कों से अधिक उसकी कीमत नहीं थी, पर मुर्गीखाने का मालिकada बैठा था कि वह उस किसान से पचास सोने के सिक्के लेकर ही उसे जाने देगा।
उसका कहना था कि अगर मरी न होती तो दो सालों में यही छोटी-सी मुर्गी पचास सिक्कों के बराबर की मोटी मुर्गी बन चुकी होती।
झगड़ा बढ़ता ही जा रहा था। तभी किसी की नजर राजा के अष्टदिग्गज दरबारी तेनालीराम पर पड़ी। लोगो ने हट कर तेनाली के लिए रास्ता बना दिया।
मुर्गी के मालिक ने तेनाली के आगे सिर झुकाया और अपनी दलील पेश करते हुए कहा, हुजूर! इस आदमी ने बेध्यानी में मेरी ऐसी मुर्गी को मार डाला, जो दो सालों में इतनी मोटी-ताज़ी हो जाती कि मैं उसे पचास सोने के सिक्कें में बेच सकता था।
तेनालीराम ने किसान की ओर देखा पर उसकी तो डर के मारे घिग्घी बंधी हुई थी।
तुम इस मुर्गी वाले को पचास सोने के सिक्के दे दो, क्योंकि तुमने इसकी मुर्गी मारी है, जिसकी कीमत यह पचास सिक्के बताता है। तेनाली ने किसान से कहा।
भीड़ में खड़े लोगों के आश्चर्य का ठिकाना नहीं था। उन्हें लगा था कि तेनालीराम न्यायोचित बात करेगा, पर यह तो सरासर अन्याय था।
मुर्गी के मालिक की बाँछे खिल गयी। हुजूर! लोग ठीक कहते हैं कि आपका न्याय हमेशा सही होता है। मैं उनकी बात से पूर्णतया सहमत हूँ।
हाँ भाई, न्याय तो सही ही होता है। तेनालीराम मुस्कुराते हुए बोला, अच्छा यह बताओ की साल भर में तुम्हारी मुर्गी कितना दाना खा जाती है ?
हुजूर! करीब आधी बोरी तो खा ही जाती। मुर्गी का मालिक बोला। तो अगर यह मुर्गी जीवित होती, तो दो वर्षों में कम से कम एक बोरा दाना तो खा ही जाती। है न। तेनाली ने पूछा।
मुर्गी के मालिक ने सहमति में सर हिला दिया। तो तुम ऐसा करो कि वह एक बोरी दाना इस किसान को दे दो, क्योंकि उसे खाने के लिए तुम्हारी मुर्गी तो जिन्दा है नहीं। तेनाली ने मुर्गी के मालिक से कहा।
अब तो उसकी सिट्टी-पिट्टी गम हो गयी। दाने की एक बोरी की कीमत पचास सिक्कों से खिन ज्यादा थी।
इधर तेनालीराम के इस न्याय से किसान के चेहरे पर मुस्कान आ गयी। भीड़ में खड़े लोग भी ख़ुशी से चिल्लाने लगे। मुर्गीखाने का मालिक बुरी तरह झेंप गया।
उसने उस मुर्गी के एवेज में किसान एक भी पैसा लेने से इंकार कर दिया और झट से अपनी दुकान में घुस गया।

 

तेनाली का न्याय

एक बार चार मित्रों ने सूत का व्यापार शुरू किया।
उन्होंने हम्पी में एक गोदाम लेकर सूत के सभी बोरे उसमें भर दिये। बस एक ही चीज उन्हें परेशान कर रही थी – वो थी चूहों की कतार।
चूहे गोदाम में घुसकर उनके सूत को बर्बाद कर देते थे। काफी सोच-विचार कर चारों मित्र एक बिल्ली खरीद लाये ताकि वह उन चूहों को मार खा जाये। बिल्ली बहुत काम की निकली।
शीघ्र ही उसने गोदाम के सारे चूहे मार डाले। चारों मित्रों को उस बिल्ली से बेहद लगाव हो गया। उन्होंने उसके चारों पैर को आपस में बाँट लिया। हर मित्र ने अपने हिस्से वाले बिल्ली के पैर के लिए खूबसूरत सोने के घुँघरु बनवाये और उसे पहना दिये।
अब बिल्ली दिन रात गोदाम में छम-छम करती घूमती। हर मित्र अपने हिस्से वाले पैर का बहुत ध्यान रखता।
एक दिन बिल्ली एक चूहे के पीछे सूत के बोरे से कूदि। ऊपर से कूदने के कारण उसके एक पैर में चोट लग गयी और वह लगड़ाने लगी। मित्रों ने उसके पैर की मरहम लगा करके एक पट्टी बांध दी।
परन्तु वह पट्टी ढीली होकर खुल गयी और बिल्ली के पीछे लम्बी दूर तक घिसटने लगी।
अब बिल्ली को क्या पता कि उसके पीछे पट्टी घिसटती आ रही है। बिल्ली घूमते-घूमते पास ही जल रही आग के पास आयी और फिर पलट कर चल दी।
इसी बीच उसके पीछे लटकी पट्टी ने आग पकड़ ली।
आग देखकर बिल्ली घबरा गयी और सारे गोदाम में इधर-उधर भागने लगी। इससे सूत की सभी बोरियों ने आग पकड़ ली। शीघ्र ही पूरा गोदाम लपटों में घिर गया और उसमें रखा सारा माल जल कर राख हो गया।
चारों मित्रों ने बिल्ली का एक-एक पैर बाँट रखा था। जिसके हिस्से में बिल्ली का घायल पैर था, सारा इल्जाम उसी के सिर आ गया।
बाकी के तीनों मित्र उससे अपना हिस्सा मांगने लगे और नुकसान की भरपाई करने के लिए बहस करने लगे। बेचारे चौथे मित्र ने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की पर वे तीनों कुछ सुनने को तैयार ही नहीं थे।
अंत में मामला राजा के पास पहुंचा। राजा कृष्णदेव राय ने दोनों पक्षों की बात बहुत ध्यान से सुनी पर मामला इतना पेचीदा था कि उन्हें कोई हल नहीं सुझा।
उन्होंने तेनालीराम को इशारा किया।
तेनालीराम कुछ देर सोचता रहा फिर बोला, बिल्ली के चोट खाये पैर का कोई कुसूर नहीं है, क्योंकि उसे गोदाम में बाकी के तीन स्वस्थ पैर लेकर गये थे।
इसलिए गोदाम में आग तीन स्वस्थ पैरों के कारण लगी है, न कि उस चोट वाले पैर के कारण। न्यायानुसार गोदाम में हुए नुकसान की भरपाई बिल्ली के तीन स्वस्थ पैरों के मालिकों को करनी चाहिए न कि चौथे चोट लगे पैर के मालिक को।
ऐसा आदेश सुनकर तीनों मित्रों की सिट्टी-पिट्टी गम हो गयी। साड़ी चालाकी भूल कर वे राजा से दया की भीख मांगने लगे।
राजा कृष्णदेव राय ने तेनाली के फैसले को सही ठहराते हुए तीनों मित्रों को कसकर डाँट लगायी और उन्हें चौथे मित्र से मांफी मांगने का आदेश दिया।

 

सूर्योदय

माँ काली सहस्त्रमुखी बन कर अत्यन्त भयानक स्वरूप में प्रकट हुई थी।
परन्तु तेनाली को उनका भयानक रूप तनिक भी न डरा पाया। माँ काली को साक्षात समक्ष पाकर तेनाली ने उनके पाँव छुए और जोर से हंसने लगा।
तेनाली को हँसते देख माँ काली अचम्भित हुई और उन्होंने तेनाली से उसके इस प्रकार हंसने का कारण जानना चाहा।
ओ देवी माँ! इस प्रकार हंसने के लिए क्षमा चाहता हूँ। परन्तु ज्यों ही मैंने आपको देखा एक ख्याल मेरे दिमाग में आया।
जब मुझे सर्दी के कारण जुकाम हो जाता है और मेरी नाक बहने लगती है, तो मेरे लिए दो हाथों से एक बहती नाक को संभालना भारी हो जाता है।
मैं सोच रहा था कि अगर कभी आपको जुकाम हो गया और आपकी हजार नाकें बहने लगी, तो आप अपने दो हाथों से उन्हें कैसे संभालेंगी ?
बस यही सोच कर मुझे हंसी आ गयी। यदि मुझसे कोई गुस्ताखी हो गयी, तो कृपया मुझे क्षमा करें माँ।
ऐसा कह कर तेनालीराम काली के पैरों पर गिर पड़ा। वैसे यह दृश्य होगा तो बहुत मजेदार! देवी माँ ने मुस्कुराते हुए कहा, तुम एक चतुर एवं वाचाल बालक हो।
मैं तुम्हें लोगों को हंसाने की कला का वरदान देती हूँ। आज से तुम विकट कवि अर्थात विदूषक कहलाओगे और खूब नाम कमाओगे।
इसे दोनों और से पढ़ने पर समान प्रतीत होता है – वि-क-ट-क-वि। तेनाली कुछ सोच कर बोला, परन्तु देवी माँ! इससे मुझे कुछ हासिल नहीं होगा।
हुम्म्। …… देवी माँ ने सिर हिलाते हुए कहा, ठीक है! मैं तुम्हें एक और वरदान देती हूँ। मेरे हाथ में दो मटकियाँ हैं।
मेरे दायें हाथ में सोने की मटकी है, जिसमें ज्ञान का दूध है और बायें हाथ में चाँदी की मटकी है जिसमें धन की दही है। तुम्हें दोनों में से एक मटकी चुननी है।
मुझे तो दोनों ही मटकियों की आवश्यकता है, क्योंकि एक के बिना दूसरी मटकी बेकार है।
तेनाली ने मन में सोचा। फिर ऐसे दिखाते हुए जैसे गहरी सोच में डूबा हो, वह अपना सिर खुजाने लगा।
अरे माँ ! बिना चखे मैं दोनों में से एक मटकी कैसे चुन सकता हूँ ?
उसने कहा। हाँ, यह तो है। देवी माँ ने तेनाली की बात पर अपनी सहमति देते हुए कहा और अपने दोनों हाथ आगे बढ़ा दिए।
पलक झपकते ही तेनाली ने दोनों मटकियों में भरे दूध और दही गटक लिये और मटकियाँ खाली कर दी।
यह देख कर देवी माँ नाराज हो गयी। वे समझ गयी कि तेनाली ने उनके साथ चालाकी की है। क्षमा करें माँ, तेनाली ने धीरे से कहा, परन्तु मुझे दोनों ही मटकियों की आवश्यकता थी।
आप ही बतायें बिना धन-दौलत के केवल ज्ञान का क्या लाभ ?
जो तुम कह रहे हो, वह सही है। पर तुम्हारी वाचालता और तुम्हारा ऐश्वर्य तुम्हारे लिए शत्रु व मित्र दोनों ही बनायेंगे।
इसलिए भविष्य में सावधान रहना। यह कहकर माँ काली ने तेनाली राम को आशीर्वाद दिया और वहाँ से अन्तर्धान हो गयी।
इस प्रकार तेनालीराम हर क्षेत्र में आगे निकला और हास्यकवि के रूप में प्रसिद्ध हुआ। उसने संस्कृत, तेलगु, मराठी, तमिल और कन्नड़ भाषाओं का गहन अध्ययन किया।
शीघ्र ही तेनाली को समझ में आ गया कि यदि जीवन में उन्नति करनी है, तो उसे छोटे से गाँव तेनाली से बाहर निकल कर हम्पी जाना होगा। हम्पी विजयनगर साम्राज्य की राजधानी थी।
तेनाली जानता था कि विजयनगर के महाराज कृष्णदेव राय के दरबार में विद्वानों का बहुत सम्मान किया जाता है।
एक बार विजयनगर के राजगुरु तथाचार्य सिरिगेरी आये जो तेनाली के समीप ही था।
तेनाली ने अपनी बेहतरीन कविताओं का पुलिंदा बनाया और राजगुरु से मिलने पहुंच गया। तेनाली की कविताएँ सुनकर राजगुरु अत्यन्त प्रभावित हुए और उन्होंने तेनाली को विजयनगर के राजदरबार में आने का निमंत्रण दिया।
मौके का फायदा उठाते हुए तेनाली ने अपने घर जमीन बेच दिया और अपनी पत्नी अग्रथा, छोटे भाई तेनाली अन्नया, छोटे पुत्र एवं वृद्ध माता के साथ विजयनगर की ओर चल पड़ा।
विजयनगर पहुंच कर तेनाली राजगुरु से मिलने गया परन्तु राजगुरु ने उसे पहचानने से भी इनकार कर दिया।
तेनालीराम ने उन्हें याद दिलाने की कोशिश की, तो सैनिक ने उसे बाहर निकाल दिया और दोबारा राज दरबार में घुसने या महाराज से मिलने से रोक लगा दी।
तेनाली ने हिम्मत नहीं हारी और अंत में महाराज कृष्णदेव राय से मिल कर ही रहा। तेनाली की वाचालता और बुद्धिमानी ने महाराज का दिल जीत लिया और शीघ्र ही उसके लिए राजदरबार के द्वार खुल गए।
इस पहले कदम के बाद तेनाली को सफलता की सीढियाँ चढ़ने से कोई न रोक सका।
तेनालीराम ने अपनी जीवनयात्रा चीथड़ों से प्रारम्भ की और एक दिन दुनिया का हर ऐशो आराम उसके कदमों में था।
इस प्रकार एक छोटे से गाँव के एक छोटे से लड़के का सफर विजयनगर के राजदरबार में अष्टदिग्गज बनने पर समाप्त हुआ।
तेनाली की लगन, विश्वास और मेहनत ने साबित कर दिया कि सफलता का मूलमंत्र है – स्वयं में विश्वास।

जैसे को तैसा
तेनालीराम माँ काली का महान भक्त था।
देवी माँ की कृपा से तेनालीराम के दिमाग में निति व ज्ञान की बातों का भंडार था।
बचपन में तेनालीराम, तेनाली गाँव के पास तुमुलुरु नामक स्थान पर रहता था। एक बार तेनाली का पड़ोसी राजामौली उसे वहां के अमीर जमींदार नागेन्द्र राव के पास ले गया।
यह तेनालीराम है। बड़ा होशियार लड़का है। राजामौली ने नागेन्द्र को बताया।
मैंने आज तक तेनाली से ज्यादा समझदार लड़का नहीं देखा। इसके पास हर बात का जवाब होता है।
नागेन्द्र एक मतलबी और नकचढ़ा इंसान था। वह स्वयं को पूरे राज्य में सबसे होशियार समझता था। उसे तेनाली की तारीफ बर्दाश्त नहीं हुई।
मुझे तो इसमें कुछ ख़ास नजर नहीं आ रहा है। नागेन्द्र ने तेनाली को देखते हुए कहा। दरअसल बचपन में कोई बालक जितना होशियार होता है, बड़ा हो कर वह उतना ही उदासीन और मूर्ख हो जाता है।
आपने सही फ़र्माया, श्रीमान! तेनाली भोलेपन से बोला, मेरे विचार से आप बचपन में मुझसे कहीं ज्यादा होशियार रहे होंगे।
एक पल को नागेन्द्र चुप खड़ा रह गया, फिर वह जोर से हंसा। तेनाली की वाचालता और सटीक जवाब ने उसका दिल जीत लिया था।

 

चमत्कारी जल

एक बार तेनालीराम के पड़ोस में रहने वाली एक महिला उससे मिलने आयी।
उसने बताया कि उसकी सास उसे बहुत तंग करती है।
लगभग रोज ही दोनों के बीच कहासुनी होती है। इस कारण उनके घर की शांति भांग हो चुकी है।
वह तेनाली राम से, इस मुसीबत से बाहर निकलने का कोई सरल उपाय जानना चाहती थी।
तेनालीराम ने उस महिला की सारी बातें ध्यान से सुनी। फिर वह उठ कर भीतर गया और उसे पानी से भरी एक बोतल लाकर देते हुए बोला, इस बोतल में चमत्कारी जल भरा है।
जब भी तुम्हारी सास तुम्हें कुछ कहें तो चुल्लू भर जल अपने मुंह भर लेना और ध्यान रखना कि दो मिनट तक वह जल मुंह में ही रहे, न तो उसे पीना और न ही उसे थूकना।
दो मिनट पूरे होने के बाद उस जल को पी लेना। फिर तुम बातचीत कर सकती हो जल्दी ही तुम्हारी सारी तकलीफें दूर हो जायेंगी।
वह महिला तेनाली का शुक्रिया अदा करके और जल की बोतल लेकर ख़ुशी-ख़ुशी अपने घर चली गयी।
अगले हप्ते, वह महिला पुनः तेनालीराम से मिलने आयी। इस बार वह काफी खुश लग रही थी।
उसने तेनाली को बताया कि अब उसके घर में अपार शांति है। की दिनों से उसका अपनी सास से बिल्कुल भी झगड़ा नहीं हुआ है।
उसने तेनाली से उस चमत्कारी जल की एक और बोतल देने की प्रार्थना की।
तेनालीराम उठ कर भीतर गया और बोतल और लाकर उस महिला को दे दी। इसी प्रकार एक महीने तक चलता रहा।
वह महिला आ कर तेनालीराम से चमत्कारी जल से भरी नयी बोतल ले जाती।
हर बार वह उस जल की प्रशंसा करती और तेनाली का धन्यवाद करती। चार हप्ते बीतने के बाद जब वह महिला पांचवी बोतल लेने आयी, तो तेनालीराम ने कहा, अब तुम्हें हर हप्ते यहां आकर जल की बोतल लेने की कोई आवश्यकता नहीं है।
अब से तुम इस बोतल को अपने ही घर में कुँए से भर सकती हो। महिला को कुछ समझ नहीं आया।
वह आश्चर्यचकित होकर तेनाली का मुहं ताकने लगी। तब तेनाली ने महिला को समझाया, उस बोतल के जल में चमत्कार नहीं था, चमत्कार हुआ है तुम्हारे चुप रहने से। मुँह में भरे जल के कारण तुम अपनी सास को शीघ्र ही पलट कर करारा जवाब
देने में असमर्थ थी। जब तक तुम वह जल पीकर बोलने लायक होती, तब तक वह पल बीत चूका होता और तुम्हारी और तुम्हारी सास दोनों का गुस्सा ठण्डा हो चूका होता।
यही कारण है कि अब तुम्हारे घर में सुख-शांति का वास है।
अब वह महिला अपनी भूल समझ चुकी थी। उसने तेनाली का शुक्रिया अदा किया और चुपचाप अपने घर चली गयी।
उस दिन के बाद उस महिला के घर से कभी लड़ाई-झगड़े की आवाज नहीं आयी। वह संयम का अर्थ समझ चुकी थी।

 

अंतिम पहेली

उमतूर का जमींदार तोड़राम चंदू तेनालीराम का परम मित्र था।
उसके तीन पुत्र थे। एक बार चंदू बहुत बीमार हुआ।
अपनी मृत्युशैया पर आखिरी साँसे गिनते हुए अपने तीनों पुत्रों को बुलाया और कहा – मेरी मृत्यु के बाद मेरे पलंग के नीचे खोदना। इतना कह कर चंदू का स्वर्गवास हो गया।
पिता का अंतिम संस्कार करने के पश्चात पुत्रों ने उसके अंतिम आदेश का पालन करते हुए उसके पलंग के नीचे खोदना शुरू किया।
जमीन में से एक के ऊपर एक रखे तीन मटके निकले। सबसे ऊपर वाले मटके में मिटटी भरी थी। बीच वाले मटके में गोबर भरा था और सबसे नीचे वाले मटके में तिनके थे।
इन तीनों मटकों के नीचे एक छोटा-सा थैला था जिसमें दस सोने की अशर्फियाँ रखी थी।
यह देखकर तीनों भाई अचम्भित रह गये। मुझे यकीन है कि इन तीनों मटकों के द्वारा पिताजी हमें कोई सन्देश देना चाहते थे। बड़ा भाई बोला लेकिन वह सन्देश है क्या ?
तीनों भाई बहुत देर तक अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाते रहे, पर किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सके।
अंत में उन्होंने तय किया कि वे इस मामले में तेनालीराम से सलाह मशविरा करेंगे।
तेनालीराम के पास जाकर उन्होंने पूरी बात बतायी और सलाह मांगी उनकी बात सुनकर तेनालीराम बहुत जोर से हँसा।
तुम्हारे पिता एक चतुर इंसान थे। उन्होंने पहेली बूझाने का भी बहुत शौक था।
तेनाली ने कहा। मेरे विचार से यह उनकी अंतिम पहेली है जिसका हल ढूँढने का जिम्मा तुम पर डाल कर वे स्वर्ग सिधार गये। दरसअल यह पहेली बेहद आसान है।
ध्यान से सुनो, तुम कहते हो सबसे ऊपर वाले में मिट्टी भरी है इसका अर्थ है कि वे अपने सबसे बड़े पुत्र को अपने खेत देना चाहते हैं।
बीच वाले मटके में गोबर भरे होने का अर्थ है कि वे अपने दूसरे पुत्र को सभी जानवर और गऊशाला का जिम्मा सौंपते हैं। अंतिम मटके में तिनके भरे हैं, जो सुनहरे रंग के होते हैं। तो वह अपने तीसरे और अंतिम पुत्र को अपना सारा सोना सौंपते हैं।
तेनाली राम की बात सुनकर तीनों भाइयों की बाछें खिल गयी जायदाद के बँटवारे का ऐसा अनोखा तरीका न कभी किसी ने देखा था, न सुना था।
परन्तु एक चीज तो अब भी बची है। छोटा पुत्र बोला, तीनों मटकों के नीचे दस सोने की अशर्फियाँ निकली थी। वे किसका हैं ?
तुम्हारे पिता अत्यंत दूरदर्शी व समझदार थे। उन्हें पता था कि तुम अपनी समस्या का हल ढूंढने के लिए मेरे पास आओगे। तेनाली ने मुस्कुराते हुए कहा, ये दस अशर्फियाँ मेरी फीस हैं और हँसते हुए तेनाली ने उन अशर्फियाँ को जेब में रख लिया।