murti puja

रामायण काल में लंका युद्ध के समय प्रभु श्रीराम ने समुद्र तट पर बालू रेत का शिवलिंग बनाकर पूजा की ओर भोलेनाथ से विजय धनुष प्राप्त किया  | महाभारत काल में एकलव्य ने द्रोणाचार्य को गुरु मानकर उनकी मिटटी की प्रीतिमा स्थापित करके बाण विद्या में निपुर्णता प्राप्त की थी  | भावना को उभारने हेतु मूर्ति पूजा आवश्यक है |

मनुष्य का चंचल मन बड़ा चलायमान होता है वह चंचल मन की चंचलता को रोक नहीं पाते  है |  मन की चंचलता को स्थिर करने का एक मात्र साधन मूर्ति पूजा ही है | मूर्ति पर दृष्टि रखने से उस मूर्ति के प्रति भावना जागृत  होती है ओर यह भावना ही मन की चंचलता को केंद्रित करती है |

मूर्ति पूजा का प्रचलन हिन्दुओ मे ही नहीं बल्कि अन्य शर्मों मे भी है | जब हमारे देश में राजाओं का शासन होता था। स्वामी विवेकानंद जी का जीवन भी उन्हीं राजाओं के शासन काल में ही गुजरा था। एक बार एक राजा ने स्वामी जी को अपने राज्य में निमंत्रण दिया। स्वामी जी ने निमंत्रण को स्वीकार किया और राजा के राज्य में चले आये।

स्वामी विवेकानंद के आदर सत्कार के बाद राजा ने मंत्रणा की इच्छा जताई। बातों-बातों में राजा ने स्वामी जी से पूछा – ”तुम हिंदू लोग मूर्ति पूजन क्यों करते हो?” धातु, मिट्टी और पत्थर से बनी यह मूर्तियां तो बेजान है। यह तो केवल एक वस्तु है। मैं यह सब नही मानता।”  उस राजा के सिंहासन के पीछे एक तस्वीर थी जिस पर विवेकानंद जी कि नज़र गई। स्वामी जी ने राजा से पूछा – यह तस्वीर किसकी है?

राजा ने कहा – ”मेरे पिताजी की” स्वामी जी बोले – ”जरा उस तस्वीर को अपने हाथो में लिजिये, राजा तस्वीर को हाथो में लेता है, तभी स्वामी जी बोले अब आप इस तस्वीर पर थूकिए” राजा ने कहा – ”यह आप क्या बोल रहे है?”

स्वामी जी ने अपनी बात फिर से दोहराई। तभी राजा क्रोध से बोलता है – ”स्वामी जी आप होश में तो है, मैं यह काम कदापि नही कर सकता।” स्वामी जी बोले – ”क्यो? ये तस्वीर तो बस एक कागज़ का टुकड़ा है जिसमे कुछ रंग भरे है।” इसमें ना तो जान है, ना स्वर, ना तो ये सुन और बोल सकती है। यहाँ तक कि इस तस्वीर में हड्डिया और प्राण भी नही है फिर भी आप इस तस्वीर पर थूक नही सकते। क्योकि, राजन आप इस तस्वीर में अपने पिता का स्वरूप देखते है। इस तस्वीर का अपमान करना आप अपने पिता का अपमान करना समझते है।

ठीक उसी तरह , ”हम हिंदू भी धातु, पत्थर और मिट्टी से बनी मूर्तियों में अपने भगवान का स्वरूप मान कर पूजा करते है। भगवान तो सब जगह है, अगर मन में सच्ची आस्था और विश्वास हो तो मूर्तियों में भी ईश्वर नज़र आते है।” हम हिंदू मूर्तियों को ईश्वर का आधार मान कर अपने मन को एकाग्रचित कर मूर्ति पूजा करते है क्योकि हम यह मानते है ईश्वर तो ”कण-कण में है।”

हिंदुओं के मूर्ति पूजन का रहस्य जान कर राजन ने स्वामी विवेकानंद के चरणों में गिर कर क्षमा माँगी।

 

– अन्तर्राष्ट्रीय वास्तुविद् वास्तुरत्न ज्योतिषाचार्य पं प्रशांत व्यासजी
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