Motivation-and-Inspiration

मिलकर काम करने से तरक्की होती है

दुनिया में जो तरक्की हो रही है या देश में कोई तरक्की करता है तो उसे जरूर देखना चाहिए । चाहे घर की टीम हो या बाहरी लोगों को मिलाकर बनाई हुई हो । जहाँ -जहाँ अच्छे समूह बन गए वहाँ -वहाँ तरक्की हो गई । ऐसा ही देखा गया है । आपके आस-पास जितने लोग तरक्की पसन्द हैं वो मिलकर ही काम करते होगें । उनका टीम वर्क अच्छा होगा ।
एक परिवार था वो गरीब था । खाने को कुछ नहीं था । काफी सोचा की काम मिले मगर काम नहीं मिला ।
दो बच्चे थे, बीबी थी । एक दिन उन्हें विचार आया कि इस गांव में काम मिलना मुश्किल है । चलो कहीं और चलते हैं ।
इस इरादे से वे एक दिन गांव छोड़कर चल दिये । रात का समय था, रास्ता भी जंगली था ।
सोचा वृक्ष के नीचे रात गुजारी जाये । आदमी ने अपने एक लड़के को लकड़ी चुनने तथा दूसरे को पानी लाने के लिए भेज दिया तथा बीबी को चूल्हा बनाने के लिए कहा ।
और उसने जगह साफ कर दी । चारों ने अपने-अपने काम कर लिए ।
चूल्हा जलाया गया पानी गर्म होने लग गया ।
वृक्ष के ऊपर हंस रहता था वो सोचने लगा यह कैसा मूर्ख हैं इन्होनें चूल्हा तो जला दिया मगर इन के पास पकाने को तो है ही नहीं कुछ भी ।
हंस ने उनसे पूछा – तुम्हारे पास पकाने को क्या है ? वो आदमी बोला-तुझे मार के खायेंगे ।
हंस बोला – मुझे क्यों मारोगे ? आदमी बोला – हमारे पास न पैसा है और न ही सामान तो क्या करें ?
हंस सोच में पड़ गया । इन्होनें चूल्हा भी जला लिया है ।
सब कर्मशील हैं, मुझे तो यह खा ही जायेंगे तो हंस बोला – अगर मैं आपको धन दे दूं तो मुझे छोड़ दोगे ।
घर का स्वामी बोला – हां, छोड़ देंगे ।
हंस कहने लगा मेरे साथ चलो मैं तुम्हें धन देता हूं ।
हंस उन को थोड़ी दूर ले गया और चोंच से इशारा किया और कहा कि यहां से निकाल लो ।
उन्होंने गढ्ढा खोदा और वहां से धन निकाल लिया ।
हंस का धन्यवाद कर के वापस अपने गांव आ गये और एक ही दिन में खूब मौज से रहने लग गए ।
अब उनके घर में किसी चीज की कमी नहीं थी । पड़ोसी ने देखा कि इस परिवार के पास ऐसी कौन सी चीज आ गयी जो इन के पास इतना कुछ आ गया ।
उसने छोटे लड़के को बुला कर सारी बात पूछ ली कि पैसा कहाँ से आया है ।
उनके भी दो बच्चे थे । उन्होंने भी ऐसी योजना बनाई और चल दिये ।
उन्होंने भ उसी वृक्ष के नीचे डेरा लगा लिया । आदमी ने अपने बड़े लड़के को कहा – लकड़ी लाओ तथा छोटे लड़के को पानी लाने के लिए कहा परन्तु दोनों आनाकानी करने लगे ।
बीबी ने भी कहा कि मैं थक चुकी हूं । जैसे-जैसे पानी लकड़ी इकट्ठी हो गई और पानी गर्म होने लगा ।
हंस फिर आया और बोला तुम्हारे पास खाने को तो नहीं है तो फिर पानी गर्म कर रहे हो ।
आदमी बोला तुझे मार कर खायेंगे ।
हंस मुस्कुरा उठा और बोला – मारने वाले तो तीन दिन पहले आये थे ।
तुम अपना समय खराब मत करो । घर जाओ तुम मुझे क्या मरोगे तुम तो आपस में ही लड़ रहे हो ।
जिन्होंने दूसरों को जितना होता है वे खुद नहीं लड़ते ।
संसार का नियम भी ऐसा ही है । जिन लोगों ने तरक्की करनी है वे मिलकर चलते हैं और आज भी संसार में उन का ही बोल -बाला है । जो आपसी तालमेल में रहते हैं वे ही समाज रूपी हंस को जीत सकते हैं ।

 

कसान का मातम मनाने से नहीं मिलती सफलता

आकाश मायूस बैठा था। उसे व्यापर में बहुत नुकसान हुआ था। बैंक से भी उसने कर्ज ले रखा था, लेकिन नुकसान की वजह से वह क़िस्त चुकाने की स्थिति में नहीं था।
उसे डर लग रहा था कि बैंक वाले दबाव बनाने लगेंगे तो वह क्या करेगा। उसे यह भी समझ में नहीं आ रहा था कि आगे कौन सा काम शुरू करें।
जिस बिजनेस में नुकसान हुआ था उसे दोबारा शुरू करने की हिम्मत आकाश में नहीं थी।
यही सब सोच कर वह परेशान रहने लगा। एक दिन उसका दोस्त परेश उससे मिलने आया। परेश ने आकाश को देखते ही कहा – क्या बात है यार, बहुत परेशान लग रहे हो।
आकाश ने अपनी परेशानी छुपाने की कोशिश करते हुए कहा – कुछ नहीं यार, बिजनेस में थोड़ा उतर-चढ़ाव आता रहता है।
परेश ने कहा – तुम्हारा चेहरा बता रहा है कि मामला गंभीर है। मुझसे छुपाओ नहीं। परेश की बात सुनकर आकाश ने उसे अपनी सारी कहानी बता दी।
इसके बाद उसने पूछा मेरी जगह तुम होते तो क्या करते ?
परेश ने थोड़ा सोचने के बाद कहा – अगर मैं तुम्हारी जगह होता तो अपनी असफलता पर पछतावा नहीं करता।
आगे क्या करना है, उसपर विचार करता।
पछतावा करते रहने से आदमी नुकसान से दुःख से बाहर नहीं निकल पता है।
मेरी मानो तो तुम नए सिरे से अपने बिजनेस को खड़ा करने की सोचो।
मित्र की सलाह के बाद आकाश ने कहा – तुम बात तो ठीक कह रहे हो, लेकिन मुझमें फिर से वही बिजनेस शुरू करने की हिम्मत नहीं है।
इस पर परेश ने कहा – यह सही है की तुम्हें नुकसान हुआ है लेकिन तुम्हें तजुर्बा भी मिला है। अगर तुम कुछ नया शुरू करने की योजना बनाते हो तो तुम्हें शून्य से शुरू करना होगा।
अगर तुम अपने पुराने काम को नए सिरे से शुरू करते हो तो तुम्हें बहुत ज्यादा होमवर्क करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। मेरी राय में तुम्हें नुकसान का मातम नहीं मामना चाहिए। काम को नए सिरे से शुरू करने की प्लानिंग करनी चाहिए।
जितना ज्यादा नुकसान के बारे में सोचोगे उतना अधिक तुम अपनी सफलता से दूर होते जाओगे।

 

एकता और समझदारी

ऊँचे आकाश में सफेद कबूतरों की एक टोली उड़कर जा रही थी।
बहुत दूर जाना था उन्हें। लंबा रास्ता था। सुबह से उड़ते-उड़ते थकान होने लगी थी।
सूरज तेजी से चमक रहा था। कबूतरों को भूख लगने लगी थी। तभी उन्होंने देखा कि नीचे जमीन पर चावल के बहुत से दाने पड़े थे।
कबूतरों ने एक-दूसरे से कहा, चलो भाई, थोड़ी देर रुककर कुछ खा लिया जाए। फिर आगे जाएँगे। एक बुजुर्ग कबूतर ने चारों ओर देखा। वहाँ दूर -दूर तक कोई घर या मनुष्य दिखाई नहीं दे रहा था। फिर चावल के ये दाने यहाँ कहाँ से आए ?
बुजुर्ग कबूतर ने बाकी कबूतरों को समझाया, मुझे लगता है कि यहाँ कुछ गड़बड़ है। तुम लोग नीचे मत उतरो।
लेकिन किसी ने भी उसकी बात नहीं सुनी। सभी कबूतर तेजी से उतरे दाना चुगने लगे।
इतने बढ़िया दाने बहुत दिनों के बाद खाने को मिले थे।
वे बहुत खुश थे। जब सभी ने भरपेट खा लिया तो बोले चलो भाई, अब आगे चला जाए। लेकिन यह क्या ? जब उन्होंने उड़ने की कोशिश की तो उड़ ही नहीं पाए। दोनों के साथ-साथ वहाँ एक चिड़ीमार का जाल भी था, जिसमें उनके पाँव फँस गए थे। उन्हें अपनी गलती पर पछतावा हुआ।
बूढ़ा कबूतर पेड़ पर बैठकर सब देख रहा था। उसने जब अपने साथियों को मुसीबत में देखा तो फौरन उड़ा और चारो ओर देखा।
दूर उसे चिड़ीमार आता दिखाई दिया।
वह फौरन लौटा और अपने साथियों को बताया। सब वहाँ से निकलने का उपाय सोचने लगे।
तब बूढ़े कबूतर ने कहा, दोस्तों, एकता में बड़ी शक्ति होती है। सब एक साथ उड़ोगे तो जाल तुम्हें रोक नहीं पाएगा।
उसने गिना – एक दो तीन। …….. उड़ो …..
सारे कबूतरों ने एक साथ जोर लगाया और जाल उनके साथ उठने लगा। जब तक चिड़ीमार वहाँ पहुँचा, तब तक जाल काफी ऊपर उठ चूका था। वह देखता ही रह गया और कबूतर जाल लेकर उड़ गए। बूढ़ा कबूतर सबसे आगे उड़ रहा था।
काफी देर उड़ने के बाद वे नीचे उतरे। वहाँ कबूतरों के दोस्त चूहे रहते थे। चूहों ने अपने तेज दातों से जाल काट दिया।
इस तरह बूढ़े कबूतर की समझदारी और साथ मिलकर काम करने से सभी कबूतर बच गए।

 

अपने काम को खुद नहीं समझें महत्वहीन

मुकेश दफ्तर में नये हैं, पहले वह दूसरे संस्थान में काम करते थे।
अपना काम तल्लीनता से करते हैं. लेकिन चेहरा बताता है कि मुकेश अपने काम से खुश नहीं हैं।
एक दिन इस बारे में पूछने पर उन्होंने कहा – जब काम में मन नहीं लगे, तो चेहरा उदास हो ही जाता है। काम में मन क्यों नहीं लग रहा है ?
यह पूछने पर उन्होंने कहा – अरे यह भी कोई काम है। इसके बाद उन्होंने ढेर सारे तथ्यों के साथ अपने काम को महत्वहीन बताने की कोशिश की।
उन्होंने यह भी कहा कि इस समय जो काम मेरे जिम्मे है, उसके आधार पर दूसरे संस्थान में नौकरी भी नहीं मिलेगी। इस बात को मुकेश के रिपोर्टिंग मैनेजर मिस्टर कुमार को बताया गया। वह सुलझे हुए इंसान हैं।
उन्होंने तरिके से मुकेश को समझाया कि उनका काम कैसे महत्वपूर्ण है। मिस्टर कुमार ने उनसे पूछा – मुकेश पहले अपने काम के बारे में बताइए।
मुकेश ने कहा – मेरा काम यह देखना है कि हमारी कम्पनी के प्रोडक्ट में कहाँ-कहाँ गड़बड़ी है। उसे कैसे दूर किया जा सकता था। आगे ऐसा क्या किया जाये जिससे पुरानी खामियां फिर से सामने नहीं आये।
मुकेश की बात खत्म होते ही मिस्टर कुमार ने कहा – यह जान कर अच्छा लगा की आपको अपने काम की अच्छी समझ है।
जैसा आपने कहा है उसके अनुसार आपका काम प्रोडक्ट को कैसे बेहतर बनाया जाये और उसके निर्माण के दौरान की खामियों को दूर करने से जुड़ा है।
मुकेश ने हाँ में सर हिलाया। इसके बाद मिस्टर कुमार ने पूछा – जब प्रोडक्ट को लेकर इतनी बड़ी जिम्मेदारी कंपनी ने आपको दी है तब आप अपने काम को महत्वहीन क्यों समझते हैं।
एक आम धारणा है कि जो लोग प्रोडक्ट के निर्माण से सीधे जुड़े हैं वही मेनस्ट्रीम में काम करते हैं। लेकिन हर काम मेनस्ट्रीम का होता है। अगर ऐसा नहीं होता तो कम्पनी आपके ऊपर खर्च नहीं करती।
कम्पनी को पता है कि आपके काम का परिणाम प्रोडक्ट पर दिखेगा। इसलिए इस बात को मन से निकालिए कि आप जो काम कर रहे हैं उसकी पूछ नहीं है। ध्यान से देखेंगे तो लगेगा कि आपका काम ही सबसे महत्वपूर्ण है।

 

जीवन साथी सबसे अजीज होता है

कॉलेज में Happy married life पर एक कार्यक्रम हो रहा था, जिसमे कुछ शादीशुदा जोडे हिस्सा ले रहे थे।
जिस समय प्रोफेसर मंच पर आए उन्होने नोट किया कि सभी पति- पत्नी शादी पर जोक कर हँस रहे थे ।
ये देख कर प्रोफेसर ने कहा कि चलो पहले एक Game खेलते है… उसके बाद अपने विषय पर बातें करेंगे।
सभी खुश हो गए और कहा कोन सा Game ?
प्रोफ़ेसर ने एक married लड़की को खड़ा किया और कहा कि तुम ब्लेक बोर्ड पे ऐसे 25- 30 लोगों के नाम लिखो जो तुम्हे सबसे अधिक प्यारे हों ।
लड़की ने पहले तो अपने परिवार के लोगो के नाम लिखे फिर अपने सगे सम्बन्धी, दोस्तों,पडोसी और सहकर्मियों के नाम लिख दिए ।
अब प्रोफ़ेसर ने उसमे से कोई भी कम पसंद वाले 5 नाम मिटाने को कहा ।
लड़की ने अपने सह कर्मियों के नाम मिटा दिए ।
प्रोफ़ेसर ने और 5 नाम मिटाने को कहा… लड़की ने थोडा सोच कर अपने पड़ोसियो के नाम मिटा दिए ।
अब प्रोफ़ेसर ने और 10 नाम मिटाने को कहा ।
लड़की ने अपने सगे सम्बन्धी और दोस्तों के नाम मिटा दिए ।
अब बोर्ड पर सिर्फ 4 नाम बचे थे जो उसके मम्मी- पापा,पति और बच्चे का नाम था ।
अब प्रोफ़ेसर ने कहा इसमें से और 2 नाम मिटा दो ।
लड़की असमंजस में पड गयी बहुत सोचने के बाद बहुत दुखी होते हुए उसने अपने मम्मी- पापा का नाम मिटा दिया ।
सभी लोग स्तब्ध और शांत थे क्योकि वो जानते थे कि ये गेम सिर्फ वो लड़की ही नहीं खेल रही थी उनके दिमाग में भी यही सब चल रहा था।
अब सिर्फ 2 ही नाम बचे थे पति और बेटे का प्रोफ़ेसर ने कहा और एक नाम मिटा दो ।
लड़की अब सहमी सी रह गयी बहुत सोचने के बाद रोते हुए अपने बेटे का नाम काट दिया ।
प्रोफ़ेसर ने उस लड़की से कहा तुम अपनी जगह पर जाकर बैठ जाओ और सभी की तरफ गौर से देखा और पूछा- क्या कोई बता सकता है कि ऐसा क्यों हुआ कि सिर्फ पति का ही नाम बोर्ड पर रह गया।
कोई जवाब नहीं दे पाया सभी मुँह लटका कर बैठे थे ।
प्रोफ़ेसर ने फिर उस लड़की को खड़ा किया और कहा ।
ऐसा क्यों ! जिसने तुम्हे जन्म दिया और पाल पोस कर इतना बड़ा किया उनका नाम तुमने मिटा दिया और तो और तुमने अपनी कोख से जिस बच्चे को जन्म दिया उसका भी नाम तुमने मिटा दिया ?
लड़की ने जवाब दिया कि अब मम्मी- पापा बूढ़े हो चुके हैं, कुछ साल के बाद वो मुझे और इस दुनिया को छोड़ के चले जायेंगे ।
मेरा बेटा जब बड़ा हो जायेगा तो जरूरी नहीं कि वो शादी के बाद मेरे साथ ही रहे।
लेकिन मेरे पति जब तक मेरी जान में जान है तब तक मेरा आधा शरीर बनके मेरा साथ निभायेंगे ।
इस लिए मेरे लिए सबसे अजीज मेरे पति हैं ।
प्रोफ़ेसर और बाकी स्टूडेंट ने तालियों की गूंज से लड़की को सलामी दी ।
प्रोफ़ेसर ने कहा तुमने बिलकुल सही कहा कि तुम और सभी के बिना रह सकती हो पर अपने आधे अंग अर्थात अपने पति के बिना नहीं रह सकती l
मजाक मस्ती तक तो ठीक है पर हर इंसान का अपना जीवन साथी ही उसको सब से ज्यादा अजीज होता है ।

 

सफल होने के लिए हमेशा सीखते रहें

सिंकंदर और रोहित मित्र हैं।
दोनों ने एक साथ अपना-अपना काम शुरू किया। दोनों मित्रों का व्यापार खूब चला किछ समय बाद रोहित ने सोचा कि अब मेरा व्यापार चल पड़ा है।
मैं तरक्की करता चला जाऊंगा, इसलिए अब मुझे इस लाइन में कुछ नया सिखने की जरूरत नहीं है।
व्यापार में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। रोहित के व्यापार में भी ऐसी स्थिति आयी और उसे नुक्सान झेलना पड़ा।
सिंकंदर के व्यापार में भी उतार-चढ़ाव आये पर उसे उतना नुक्सान नहीं हुआ जितना रोहित को हुआ।
रोहित सोचने लगा कि सिकंदर ने अपने नुकसान को नियंत्रित कैसे किया ?
रोहित ने इस बारे में उससे पूछने का मन बनाया।
जब उसने सिकंदर से इस बारे में पूछा तब सिकंदर ने कहा कि मैं अभी सिख रहा हूँ।
रोहित ने कहा – मैं समझा नहीं। सिकंदर ने सपनी बात समझाते हुए कहा – मैं अपनी ही नहीं दूसरों की गलतियों और कामयाबी से भी सीखता हूँ।
इससे मेरे जीवन में एक जैसी परेशानी बार-बार नहीं आती। अगर आती भी है तो आसानी से हल हो जाती है।
सिकंदर की बात सुनकर रोहित को अपनी गलती का अहसास हुआ।
उसे एहसास हुआ कि शुरूआती सफलता के बाद उसने सीखना एकदम छोड़ दिया था। यही वजह है कि अपने व्यापार में होने वाले नुकसान का आकलन वह नहीं कर पाया।
जीवन में सफल होने के लिए सीखते रहना जरूरी है ।
इंसान को हमेशा सीखते रहना चाहिए इससे उसके भीतर नकारात्मक विचार नहीं आते हैं, बल्कि उसमें सकारात्मक बदलाव आता रहता है
और सफलता की सीढियाँ चढ़ता रहता है। सीखते रहने वाले व्यक्ति को सफलता के अवसर भी ज्यादा मिलते हैं।
सबसे बड़ी बात यह है कि इस तरह के व्यक्ति में अहंकार नहीं होता। जिसके मन में अहंकार होगा वह कभी सिखने का प्रयास नहीं करेगा।

 

झूठ बोलकर भी पाया सच बोलने का पुण्य

एक किसान की फसल पाले ने बर्बाद कर दी।
उसके घर में अन्न का एक दाना भी नहीं बचा। गांव में ऐसा कोई नहीं था, जो किसान की सहायता करे।
किसान सोच्त्र रहा कि वह क्या करे ?
जब कोई उपाय नहीं सूझा तो वह एक रात जमींदार के बाड़े में जाकर उसकी एक गाय चुरा लाया।
जब सुबह हुई तो उसने गाय का दूध दूहकर अपने बच्चों को भरपेट पिलाया। उधर जमींदार के नौकरों को जब पता चला कि किसान ने जमींदार की गाय चुराई है तो उन्होंने जमींदार से शिकायत की।
जमींदार ने पंचायत में किसान को बुलाया। पांचों ने किसान से पूछा – यह गाय तुम कहाँ से लाए ?
किसान ने उत्तर दिया – इसे मैं मेले से खरीदकर लाया हूँ।
पंचों ने बहुत घुमा-फिरकर सवाल किया, किन्तु किसान इसी उत्तर पर अडिग रहा।
फिर पंचों ने जमींदार से पूछा क्या यह गया आपका ही है ?
जमींदार ने किसान की और देखा तो किसान ने अपनी आँखे नीची कर ली।
तब जमींदार ने किसान ने कहा – पंचों मुझसे भूल हुई। यह गाय मेरी नहीं हैं।
पंचों ने किसान को दोषमुक्त कर दिया। घर पहुंचने पर जमींदार के नौकरों ने झूठ का बोलने का कारण पूछा तो जमींदार बोला – उस किसान की नजरों में उसका दर्द झलक रहा था।
मैं उसकी विवशता समझ गया। यदि मैं सच बोलता तो उसे सजा हो जाती।
इसलिए मैंने झूठ बोलकर एक परिवार को और संकटग्रस्त होने से बचा लिया।
इतने में किसान जमींदार की गाय लेकर उसके घर पहुंच गया और जमींदार के पैरों में गिरकर माफ़ी मांगने लगा। जमींदार ने उसे गले से लगाकर माफ़ कर दिया और उसकी आर्थिक सहायता की।
वस्तुतः किसी के भले के लिए बोला गया झूठ पूर्णतः धार्मिक है, क्योंकि संकटग्रस्त की सहायत के लिए साधना की पवित्रता नहीं, बल्कि साध्य की सात्विकता देखि जाती है।

 

सुख-शांति का स्थायी आधार

आश्रम में रहने वाले शिष्यों ने एक दिन अपने गुरु से प्रश्न किया गुरूजी! धन, कुटुंब और धर्म में से कौन सच्चा सहायक है ?
गुरूजी ने उत्तर में यह कथा सुनाई – एक व्यक्ति के तीन मित्र थे। तीनों में से एक उसे अत्यधिक प्रिय था।
वह प्रतिदिन उससे मिलता और जहाँ खिन जाना होता तो वह उसी के साथ जाता।
दूसरे मित्र से उस व्यक्ति की मध्यम मित्रता थी।
उससे वह दो-चार दिन में मिलता था। तीसरा मित्र से वह दो माह में एक बार ही मिलता और कभी किसी काम में उसे साथ नहीं रखता था।
एक बार अपने व्यापार के सिलसिले में उस व्यक्ति से कोई गलती हो गई। जिसके लिए उसे राजदरबार में बुलाया गया।
वह घबराया और उसने प्रथम मित्र से सदा की भांति साथ चलने का आग्रह किया, किन्तु उसने सारी बात सुनकर चलने से इंकार कर दिया क्योंकि वह राजा से संबंध बिगाड़ना नहीं चाहता था।
दूसरे मित्र ने भी व्यस्तता जताकर चलने में असमर्थता जताई किन्तु तीसरा मित्र न केवल साथ चला बल्कि राजा के समक्ष उस व्यक्ति का पक्ष जोरदार ढंग से प्रस्तुत किया, जिस कारण राजा ने उसे दोषमुक्त कर दिया।
यह कथा सुनाकर गुरूजी ने समझाया – धन वह है जिसे परम प्रिय मन जाता है, किन्तु मृत्यु के बाद वह किसी काम का नहीं।
कुटुंब यथासंभव सहायता करता है, किन्तु शरीर रहने तक ही।
मगर धर्म वह है जो इस लोक और परलोक दोनों में साथ देते है और सभी प्रकार की दुर्गति से बचाता है।
सार यह है कि मनुष्य को अपनी वाणी व आचरण, दोनों से धर्म का पालन करना चाहिए यही सुख शांति का स्थायी आधार है।

 

कथा सुनने का पुण्य नहीं मिला

एक सेठ ने संकल्प लिया की बारह वर्ष तक वह प्रतिदिन कथा सुनेंगे। उनकी कामना थी कि उनकी धन, संपदा बढ़ती रहे।
ईश्वर के प्रति भक्ति भाव प्रदर्शित करने के लिए उन्होंने यह मार्ग चुना। संकल्प लेने के बाद कथा सुनाने के लिए ब्राह्मण की खोज आरंभ हुई।
सेठ जी चाहते थे कि अत्यल्प पारिश्रमिक पर कार्य हो जाए।
इसलिए उन्होंने अनेक ब्राह्मणों का साक्षात्कार लिया। अंत में उन्हें एक जैसा सदाचारी धर्मनिष्ठा ब्राह्मण मिला, जिसने बारह वर्ष तक बहुत कम पारिश्रमिक पर कथा सुनाना स्वीकार कर लिया।
ब्राह्मण तय समय पर प्रतिदिन आता और सेठ जी को कथा सुना जाता।
बारह वर्ष होने ही वाले थे कि सेठ जी को अत्यंत जरूरी व्यापारिक कार्य से बाहर जाना पड़ा। जाने के पूर्व उन्होंने जब यह बात ब्राह्मण को बताई, तो वह बोला – आपके स्थान पर आपके पुत्र कथा सुन लेगा।
यह धर्मनुसार ही है।
सेठ जी ने शंका व्यक्त की – कथा सुनकर मेरा पुत्र वैरागी तो नहीं हो जायेगा ?
ब्राह्मण ने कहा – इतने वर्षों तक कथा सुनने के बाद आप संन्यासी नहीं बने, तो दो-चार दिन में आपका पुत्र कैसे वैरागी बन जाएगा ?
सेठ से कहा – मैं तो कथा इसलिए सुनता था कि धार्मिकता का पुण्य मिले, किन्तु कथा के प्रभाव से मैं वैरागी न बनूं।
यह सुनकर ब्राह्मण बोला – क्षमा करें सेठ जी! आपको कथा का कोई पुण्य नहीं मिलेगा, क्योंकि आपकी धार्मिकता हार्दिक नहीं दिखावटी है और आप इसे स्वार्थवश कर रहे थे।
सेठ जी निरुत्तर हो गए। वस्तुतः जब ईशभक्ति निष्काम होती है और तभी वह फलती भी है।

 

कष्टों में तपकर बने खरा सोना

दंडी स्वामी बहुत बड़े विद्वान थे।
वे सत्य के आग्रही थे और अहंकार व पाखंडी से दूर रहते थे।
उनका आश्रम मथुरा में था। उसने शिक्षा पाने दूर-दूर से लोग आते थे। उनके शिष्यों में दयानंद भी थे।
सभी शिष्यों के मध्य आश्रम के कार्यों का स्पष्ट विभाजन था, किन्तु दयानंद से अधिक काम लिया जाता था। उन्हें भोजन भी कम दिया जाता, जिसमे मात्र गुड़ व भुने हुए चने होते थे।
रात में पढ़ने के लिए प्रकाश की सुविधा भी उन्हें नहीं दी जाती थी। जबकि दूसरे शिष्यों को अनेक प्रकार की सुविधाएँ प्राप्त थी।
स्वामी जी के शिष्य दयानंद के प्रति उनके इस व्यवहार से चकित थे और परस्पर बातचीत में इसकी निंदा भी करते थे, किन्तु दयानंद को गुरु की निंदा अच्छी नहीं लगती थी।
वे अन्य शिष्यों को ऐसा करने से रोकते थे और सदैव खुश रहकर गुरु की आज्ञा का पालन करते थे।
एक दिन एक शिष्य ने स्वामी जी से इसका कारण पूछा, तो वे मौन ही रहे।
अगले दिन उन्होंने अपने शिष्यों के मध्य शास्त्रार्थ करने का निर्णय लिया। सभी शिष्यों को बुलाकर उन्हें बहस हेतु एक विषय दे दिया, उन्होंने सारे शिष्यों को एक तरफ और दयानंद को अकेले दूसरी तरफ बैठाया। शास्त्रार्थ शुरू हुआ तो सभी शिष्यों पर दयानद भाड़ी पड़े और जीत गए।
तब दंडी स्वामी ने शेष शिष्यों से कहा – देखा आप लोगों ने, दयानंद अकेला आपसे लोहा ले सकता है, क्योंकि वह हर काम पूर्ण समर्पण से करता है।
दयानंद खरा सोना है और सोना आग में तपकर ही निखरता है। यही दयानंद आगे चलकर भारत के महँ समाज सुधारक दयानंद सरस्वती के नाम से विख्यात हुए।
कथासार यह है कि माता-पिता व गुरु के द्वारा सौपें गए कार्य बिना शिकायत व पूर्ण समर्पण से करने पर कार्यकुशलता व ज्ञान की वृद्धि होती है।

 

बुद्धिमानी से दिल जाता राजा का

सदियों पहले की बात है। राजा सूर्यसेन प्रतापगढ़ का राजा था।
राजा की इकलौती संतान उसकी पुत्री भानुमति थी। वह अत्यंत सुंदर थी।
भानुमति के विवाह योग्य होने पर राजा को पुत्री के लिए एक योग्य वर की तलाश थी।
राजा एक ऐसा बुद्धिमान वर खोजना चाहता था जो उसकी पुत्री से विवाह के पश्चात उसके राज्य को भी संभाल सके।
राजा ने ऐलान किया कि जो कोई भी राजकुमारी से विवाह करना चाहता है वह संसार की सबसे मूलयवान वस्तु लेकर आए।
अनेक राजकुमार कई मुलयमान वस्तुएं लेकर राजा के समक्ष उपस्थित होते रहते थे किन्तु राजा ने सबको नकार दिया। राजा को यकीन था कि एक दिन कोई न कोई योग्य युवक इस शर्त को जरूर पूरा करेगा।
एक दिन उसी राजा के राज्य के एक गांव के किसान के पुत्र रघु को राजा के इस शर्त के बारे में पता लगा।
रघु बहुत बुद्धिमान था। उसने विवेकपूर्ण तरिके से सोचा और फिर एक दिन तीन वस्तुएं लेकर राजा के दरबार में हाजिर हो गया।
राजा से अनुमति पाकर वह बोला – मैं दुनिया की तीन सबसे महत्त्वपूर्ण वस्तुएं लाया हूँ।
मेरे हाथ में यह मिट्टी है जो हमें अन्न देती है, यह जल है जो अमूल्य है और इसके बिना जीवन संभव नहीं है तीसरी वस्तु पुस्तक है।
पुस्तकें ज्ञान का आधार होती हैं और ज्ञान के बिना सृष्टि का संचालन असंभव है।
रघु की बुद्धिमता से राजा प्रभावित हुआ और उसने भानुमति का विवाह उससे करके उसे राज्य का योग्य उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।
सार यह है कि बुद्धि, विवेक और ज्ञान से कठिन से कठिन प्रश्नों का हल निकल जाता है।

 

मन की दुर्बलता

एक दिन कैलाश पर्वत पर शिव-पार्वती बैठे थे।
दोनों के मध्य पृथ्वीलोक के विषय में बातचीत चल रही थी।
दोनों ने पृथ्वी लोक भ्रमण करने का फैसला किया और फिर भ्रमण के लिए निकल पड़े। तभी एक नगर के ऊपर से गुजरते हुए मां पार्वती ने देखा कि एक वृद्ध दंपत्ति अपने पुत्र के साथ दयनीय हालत में भिक्षा मांग रहा है।
पार्वती दुखी हो गई। वे शंकर जी से बोली – प्रभु! आपकी बनाई दुनिया में कैसे गरीब लोग हैं ?
इनकी मदद कीजिए। शिव जी ने कहा – मैं इन्हें प्रसन्न नहीं कर सकता क्योंकि ये अपने मन की दुर्बलता व नकारात्मक सोच के कारण दुखी हैं।
परन्तु पार्वती जी का आग्रह जारी रहा। आखिर शिव जी को प्रणाम किया। शिव जी ने उन्हें वरदान मांगने को कहा। वृद्ध औरत बोली – देव आप मुझे 18 वर्ष की युवती बना दें।
शिव जी ने तथास्तु कह दिया। यह देख वृद्ध चिढ़कर बोला – दुष्टा! मुझे पता था कि अपने आसक्तियुक्त आचरण के कारण मुझे इस अवस्था में तू छोड़कर जाएगी।
शिव जी बोले – आप क्यों परेशान हो रहे हैं ?
आप भी वरदान मांग लें। वृद्ध ने कहा – आप इसे सुअरी बना दें।
भगवान शिव के तथास्तु कहते ही वह सुअरी बन गई।
माँ की दशा देखकर पुत्र रोने लगा। शिवजी ने उसे भी वरदान मांगने को कहा, तो वह बोला – भगवान! आप मेरी मान को उसके असली रूप में कर दें।
भगवान शिव के तथास्तु कहते ही वह फिर से वृद्ध स्त्री बन गई।
भगवान शिव ने कहा – आप लोगों ने अच्छा वरदान मांगने का अवसर खो दिया।
यह कहकर शिव गायब हो गए।
यह सब देख पार्वती ने शिव से कहा – प्रभु आपने सत्य कहा था। अच्छा वरदान मांगते कैसे ? आखिर मन की दुर्बलता ही बाहर आई। वस्तुतः असंयमी व असंतुष्ट लोग अच्छे अवसरों का लाभ नहीं उठा पाते और दुखी ही बने रहते हैं।

 

सुखी जीवन की राह

एक राजा हमेशा तनाव में रहता था।
एक दिन उनसे मिलने एक विचारक आया। उसने राजा से उसकी परेशानी पूछी तो वह बोला -मैं एक सफलतम राजा बनना चाहता हूँ, जिसे प्रजा का हर व्यक्ति पसंद करे।
मैंने अब तक अनेक सफल राजाओं के विषय में पढ़ा और उनकी नीतियों का अनुसरण किया, किन्तु वैसी सफलता नहीं मिली।
लाख प्रयासों के बावजूद मैं एक अच्छा राजा नहीं बन पा रहा हूँ।
राजा की बात सुनकर विचारक ने कहा – जब भी कोई वयक्ति अपनी प्रकृति के विपरीत कोई काम करता है, तो यही होता है।
राजा ने हैरानी जताते हुए कहा – मैंने अपनी प्रकृतिक के विपरीत क्या काम किया ?
विचारक बोला – तुम्हें बाकी लोगों पर हुक्म चलाने का अधिकार प्रकृति से नहीं मिला है। तुम जब बाकी लोगों की तरह साधारण जीवन बिताओगे, तभी आनंद मिलेगा।
जंगल में रहने वाले शेर की जान उसकी खाल की वजह से हमेशा खतरे में रहती है क्यूंकि वह बहुत कीमती होती है।
इसी वजह से वह रात में शिकार पर निकलता है, इस भी से कि सुन्दर खाल के कारण उसे कोई मार ही न डाले। शेर तो अपनी खाल नहीं त्याग
सकता है, किन्तु तुम अपनी सफलता के लिए स्वयं को राजा मानना छोड़ सकते हो।
जब तक स्वयं को राजा मानते रहोगे, दुःख ही पाओगे। राजा को विचारक की बात जाँच गई और उस दिन से वह सुखी हो गया। दरअसल अपेक्षा दुःख का कारण है।
इसलिए किसी से अपेक्षा न रखें और अपने कर्म करते हुए सहज जीवन जिएं तो निर्मल आनंद की अनुभूति सुलभ हो जाती है।

 

अनोखे गहनों की मांग

उन्नीसवीं शताब्दी का एक प्रसंग है।
मेदिनीपुर जिले के वीर सिंह नामक गाँव में एक मां अपने पुत्र के साथ रहती थी। माँ का रहन-सहन अत्यंत सादा था और विचार अति उच्च।
अपने पुत्र को वह सदा सुसंस्कारों की शिक्षा देती थी। पुत्र भी मां का आज्ञाकारी था। माँ बहुत संघर्ष कर पुत्र का पालन-पोषण कर रही थी।
पुत्र अपनी माँ के कष्टों को देखता- समझता था और इसी वजह से उसके मन में यह भावना थी कि बड़ा होकर अपनी माँ को सभी प्रकार के सुख दूँ।
एक दिन पुत्र ने माँ से कहा – मेरी बहुत इच्छा है कि तुम्हारे लिए कुछ गहने बनबाऊं, तुम्हारे पास एक भी गहना नहीं है।
यह सुनकर माँ बोली – बेटा !
मुझे बहुत दिनों से तीन प्रकार के गहनों की इच्छा है। पुत्र ने पूछा – वे कौन से गहने हैं ? माँ ने उत्तर दिया – बेटा इस गांव में स्कूल नहीं है।
तुम एक अच्छा स्कूल बनवाना। एक दवाखाना खुलवाना। गरीब और अनाथ बच्चों के रहने और भोजन की व्यवस्था करवाना।
यही मेरे लिए गहनों के समान होने। मां की बात सुनकर पुत्र रो पड़ा। वह पुत्र था पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर और माँ थी भगवती देवी। वीर सिंह गाँव में इस पुत्र द्वारा स्थापित किया हुआ भगवती विद्यालय आज भी उन अमूल्य गहनों की कथा सूना रहा है।
कथा का सार यह है कि स्वयं की सज्जा से अधिक समाज को संवारने की कामना ही मनुष्य को मनुष्यत्व प्रदान करती है और ऐसी मनुष्यता से भरा समाज एक सुसंस्कृत राष्ट्र की परिकल्पना को साकार करता है।

 

पत्नी ने कराया पति को आत्म-बोध

उपन्यासकार डा. क्रोनिन अत्यंत निर्धन थे।
पुस्तकों की रॉयल्टी या तो प्रकाशक हड़प जाते अथवा क्रोनिन को उनके हक से कम दो क्रोनिन बहुत सीधे थे। प्रकाशकों से लड़ाई कर अपना हक लेना उन्हें नहीं आता था।
अतः गरीबी में उनका जीवन बिट रहा था। इसी गरीबी में जैसे-तैसे उन्होंने चिकित्सा की पढ़ाई पूर्ण की और डॉक्टर बन गया जब वे चिकित्सा के क्षेत्र में आए तो कुछ लोगों ने उन्हें इसके जरिए पैसा कमाने का तरीका बताया।
वे लोगों की बातों में आकर मरीज से मोटी फ़ीस वसूलने लगे। वे किसी भी निधर्न पर दया नहीं करता और पुर पूरा चिकित्सा खर्च लेते।
यह देखकर क्रोनिन की पत्नी बहुत दुखी हुई। वे अत्यंत दयालु थी।
पति की गरीबों के साथ यह निर्दय देख एक दिन वे बोली – हम गरीब ही ठीक थे। हम से कम दिल में दया तो थी।
उस दया को खोकर तो हम कंगाल हो गए, अब मनुष्य ही नहीं रहे।
पत्नी की मर्मस्पर्शी बात सुनकर डा. कोर्निन को आत्मा-बोध हुआ और उन्होंने अपनी पत्नी से कहा – तुम सच कह रही हो।
व्यक्ति धन से नहीं, मन से धनी होता है। तुमने सही समय पर सही राह दिखाई अन्यथा हम अमानवीयता की गहरी खाई में गिर जाते तो कभी उठ ही नहीं पाते।
कथा का निहितार्थ यह है कि जब मनुष्य अपनी मानवीयता की मूल पहचान से डिगने लगता है, तो सामाजिक नैतिकता तो खंडित होती ही है, वह स्वयं भी भीतर खोखला हो जाता है, क्यूंकि ऐसा उनकी पवित्र संस्कारशीलता बलि चढ़ चुकने के बाद ही होता है।

 

गुरु ने बचाया शिष्य का जीवन

एक गुरु और शिष्य तीर्थाटन हेतु जा रहे थे।
चलते-चलते शाम घिर आई तो दोनों एक पेड़ के नीचे रात्रि विश्राम के लिए रुक गए।
गुरूजी रात्रि में मात्र तीन चार घंटे ही सोते थे, इसलिए उनकी नींद जल्दी पूर्ण हो गई। वे शिष्य को जगाए बिना दैनिक कार्यों से निवृत हो पूजा-पाठ में लग गए।
इसी बीच उन्होंने एक विषधर सर्प को अपने शिष्य की ओर जाते देखा। चूँकि गुरूजी पशु-पक्षियों की भाषा समझते थे, इसलिए उन्होंने सर्प से प्रश्न किया – सोए हुए मेरे शिष्य को डसने का प्रयोजन है ?
सर्प ने उत्तर दिया – महात्म्न! आपके शिष्य ने पूर्वजन्म में मेरी हत्या की थी।
मुझे उससे बदला लेना है। अकाल मृत्यु होने पर मुझे सर्प योनि मिली है। मैं आपके शिष्य को डसकर उसे भी अकाल मृत्यु दूंगा।
क्षणभर विचार के उपरांत गुरूजी बोले – मेरा शिष्य अत्यंत सदाचारी व होनहार होने के साथ ही अच्छा साधक भी है, फिर तुम उसे मरकर विश्व को उसके ज्ञान और प्रतिभा से क्यों वंचित कर रहे हो ?
स्वयं भी इस कार्य से मुक्ति नहीं मिलेगी।
किन्तु सर्प का निश्चय नहीं बदला। तब गुरूजी ने एक प्रस्ताव को रखते हुए कहा – मेरे शिष्य की साधना अभी अधूरी है।
उसे अभी इस क्षेत्र में बहुत कुछ करना है, जबकि मेरे लक्ष्य पूर्ण हो चुके हैं। मेरे नाश में किसी की हानि नहीं है। अतः उसके स्थान पर मुझे डस लो।
गुरु का यह स्नेह देखकर सर्प का हृदय परिवर्तन हो गया और वह उन्हें प्रणाम कर वहां से चला गया।
वस्तुतः गुरु की गुरुता न केवल शिष्य को ज्ञान देने में, बल्कि उसे पूर्ण परिपक्व होने तक उसकी रक्षा करने में निहित है।

 

सच्ची दोस्ती की एक कहानी

एक जगंल में तीन दोस्त बड़े आनंद से रहते थे, कछुआ हिरण और कौआ। जंगल में सभी प्रकार के प्राणी और पक्षी भी रहते थे, लेकिन उनके जैसा कोई न था। एक दिन हिरण बोली अरे.. वही बैठे-बैठे मै बोर हो गयी हु.. चलिए कोई ऐसा खेल खेलते है, जिसमें सभी को मजा आ जाए, कछुआ और कौआ बोला हाँ दोस्तों.. वही बैठे-बैठे का खेल खेल कर बोर हो चूके है अब कुछ नया खेल खेलेंगे।
कौवे को हिरन बोली ठीक है तो तुम एक बड़े से पेड पर बैठ कर आंखे बंद करके दस तक गिनती करो और हम दोनों छुपेंगे उसके बाद तुम हमे ढूँढना, ढूढने पर जो भी पहला मित्र दिखेगा वो तुम्हारी जगह पर दस तक गिनती करेगा और तुम छूप जाना। कौआ गिनती करने लगा हिरन और कछुवा छुपने लगे, इसी तरह खेल चलता रहा। जब खेल खेल कर तीनो मित्र थक गए तब एक जगह बैठ कर बाते करने लगे उतने में एक शिकारी वहाँ से गुजर रहा था। तभी उसकी नजर हिरन कौआ और कछुवे पर पड़ी।
शिकारी ने जैसे ही तीनो मित्रो को देखा उन्हें पकडने के लिए दौड़ा, खतरे का आभास होते ही हिरन और कौआ रफूचक्कर हो गये, यानि की वहाँ से भाग गये। कछुवे को आभास हुआ पंरतु कछुवे की चाल धीर होने के कारण शिकारी के हाथ लग गया और शिकारी उसे अपने दुपटे में बांधकर ले जाने लगा, शिकारी मन ही मन खुश हो गया, हिरन नही तो कछुवा ही सही, रात का तो प्रबंद हो गया, यह कहकर वहां से जाने लगा।
उधर हिरन और कौआ अपने मित्र को ऐसे शिकारी के कैद में देखकर दुखी होने लगे, तभी शिकारी भोजन में कछुवे को खाने वाला है यह सुनकर हिरन और कौवे ने एक योजना बनाई। कौवे ने हिरन को कहाँ की, जैसे ही शिकारी यहा से जब जाने लगेगा तब तुम उसके सामने जाना, जब शिकारी तुम्हे देखेगा तो अपनी पोटली जमीन पर रखकर तुम्हे पकड़ने के लिए जैसे ही दौड़ेगा, मै जमीन पर रखी हुई पोटली पकडकर उड़ जाऊगाँ और तुम वहा से भाग जाना।
जैसे ही शिकारी वहां से जाने लगा हिरन उसके सामने आ गई, शिकारी ने हिरन को पकडने के लिए पोटली जैसे ही जमीन पर रखा, कौआ अपनी चोच में पोटली पकडकर उड़ गया। शिकारी हिरन को पकडने के लिए दौडा और पीछे मुडकर देखा कौआ पोटली चोच में पकडकर उड़ रहा था और इधर हिरन पलक झपटे ही भाग गयी।
शिकारी निराश होकर घर लौट गया, कौवे ने पोटली को महफुस जगह पर रखा और कछुवे को शिकारी के चंगुल से आजाद कराया और तीनो मित्र आनंद से रहने लगे। इससे हमें यह सीख मिलती है की, असली दोस्ताना वही जो समय पर काम आए।

 

कर्मशीलता को माना सच्ची उपासना

कार्य उद्यम से ही सिद्ध होते हैं , मनोरथ मात्र से नहीं । सोये हुए शेर के मुख में मृग प्रवेश नहीं करते ।
दो मित्र थे। दोनों के मध्य मित्रता अवश्य थी, किन्तु दृष्टि और विचार दोनों के भिन्न-भिन्न थे।
एक आलसी था और सदैव भाग्य के भरोसे रहता, वह ईश्वर से मांगता रहता की बिना मेहनत किए उसे सब कुछ मिल जाए। दूसरा मेहनती था।
वह मूर्तियां बनाता और उससे मिलती आय से सुखपूर्वक जीवन यापन करता। पहला मित्र दुनिया के प्रत्येक आयाम को नकारात्मक दृष्टि से देखता, तो दूसरा सकारात्मकता से भरा था।
एक दिन वह दोनों मित्र जंगल से होकर कहीं जा रहा थे। मार्ग में उन्हें एक सुंदर गुलाबी पत्थर दिखाई दिया। पहला मित्र उस पत्थर को भगवान का प्रतीक मानकर हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगा और ईश्वर से आशिर्बाद मांगने लगा। दूसरे मित्र ने उस पत्थर को बड़े ध्यान से देखा और फिर उसे उठाकर अपने घर ले गया।
शीघ्र ही उसने उस पत्थर से भगवान की अत्यंत सुंदर प्रतिमा बना दी।
कलाकार की इस सुंदर कला को जिसने देखा, उसी ने सराहा।
एक श्रद्धालु ने इस प्रतिमा को ऊँचे दाम देकर खरीद लिया।
इससे मूर्तिकार को बहुत अच्छी आय हुई।
एक दिन दोनों मित्र मिले और एक-दूसरे का हाल-चाल पूछा। पहले ने दुःख क्लेश प्रकट किया, किन्तु दूसरे ने प्रगति व प्रसन्नता का समाचार सुनाया।
दरसअल पहला मित्र परिश्रम की बजाय भाग्य के भरोसे रहता था और दूसरा कर्म में विश्वास करता था और मानता था कि सच्ची उपासना कर्मशीलता में निहित है।
वास्तव में अपने समस्त कर्तव्यों का निष्काम भाव से समुचित निर्वहन ही कर्मयोग है और यही सच्ची भक्ति या उपासना है।
ईश्वर भी उसकी सहायत करता है जो अपनी सहायता खुद करते हैं।

 

सीख

अपनी कमियों को छुपाना कितना सामान्य है पर उनका सामना करे तो सारे संकट गायब हो जाते हैं।
बात उन दिनों की है जब स्नातक में पढ़ता था
इंटर में कम प्राप्तांक आने के कारण मेरा नामांकन वाणिज्य महाविद्यालय, पटना जिसमें कि रेगुलर कोर्स होता है, नहीं हो पाया था।
इसी वजह से मैंने पटना विश्व विद्यालय के दूरस्थ शिक्षा माध्यम से स्नातक में नामांकन करा लिया।
परन्तु मुझे यह कहने में बहुत ही झेंप महसूस होती थी, इसलिए मैं अक्सर दूसरे को कहा करता था कि मैं वाणिज्य महाविद्यालय में पढ़ता हूँ।
एक बार की बात है, मैं बगल के बैंक में खाता खुलवाने के लिए गया था।
वहां बातचीत के क्रम में बैंक मैनेजर ने मुझसे पूछ लिया, बाबू, तुम कहाँ पढ़ते हो ?
आदतन मैंने कह दिया कि वाणिज्य महविद्यालय-द्वितीय वर्ष।
फिर उन्होंने मुझसे पूछा कि अभी वहां के प्रिंसिपल कौन हैं ?
अब तो मेरे पास कोई जवाब ही नहीं था। परन्तु अपने हाव-भाव को छुपाते हुए मैंने कह दिया कि पता नहीं सर क्योंकि मैं ज्यादा नहीं जाता हूँ। तब उन्होंने दूसरा सवाल दाग दिया कि अकाउन्टेंस कौन पढ़ाते हैं ?
अब तो मैं निरुत्तर हो गया क्योंकि इसका गलत उत्तर देते साथ ही मेरी चोरी पकड़ी जाती। मैं बगल-बगल देखने लगा। संभवतः उनकों वाकया समझते देर नहीं लगी ।
उन्होंने कहा, ऐसे हो ही नहीं सकता कि कोई विद्यार्थी यह नहीं जाने की उसके कॉलेज का प्रिंसिपल कौन है चाहे वह कितना ही कम क्यों न कॉलेज जाता हो।
मैं भी वाणिज्य महाविद्यालय का स्टूडेंट रहा हूँ इसलिए जिज्ञासावश पूछ लिया था।
मैंने बहुत ही लज्जित होकर पूरी सच्ची कहानी कह डाली।
तब उन्होंने समझाया कम नंबर आने के कारण कॉलेज में एडमिशन न हो पाना गलत नहीं है परन्तु झूठ बोलना तो निहायत ही गलत है।
तुम्हारा कम नंबर आने के कारण एडमीशन नहीं हो पाया, मगर तुम अभी से कोशिश करोगे तो निश्चित ही तुम अच्छा मुकाम पा जाओगे।
परन्तु इसके लिए तुम्हें अपनी कमजोरी को छिपाना नहीं चाहिए बल्कि उसको एक आधार मानकर बड़ी मजबूती से अपनी मंजिल को पाने के लिए कोशिश करनी चाहिए।
बैंक मैनेजर की वह सीख हमेशा के लिए मेरे मन मस्तिष्क में अंकित हो गई।
निरंतर प्रयास से आज मैं सराकरी सेवा में हूँ।

 

घर किसका ?

अक्सर हम सामने वाले से कर्तव्य या जिम्मेदारी की उम्मीदें करते हैं। क्या उसी जिम्मेदारी और कर्तव्य का पालन खुद करते हैं ?
मुझे इंग्लिश ऑनर्स की परीक्षा के लिए मधुबनी सेंटर मिला था। मैं परीक्षा देने के लिए अपनी चचेरी बहन गुड़ी के यहाँ रुकी थी।
मैं अपनी पढ़ाई कर रही थी, तभी मैंने सुना गुड़ी अपनी कामवाली बाई को सुना रही थी, देख सोफे पर कितनी धूल जमी है,
उधर टेबल के नीचे कितना कचरा पड़ा है, कांच पर कितने दाग लगे हैं, कैसी सफाई करती है। घर को अपना समझकर काम किया कर।
अगले दिन बाई नहीं आयी, तो गुड़ी बोली कि कल आएगी, तो सफाई कर लेगी।
दूसरे दिन मालूम पड़ा कि बाई आज भी नहीं, कल आएगी तो गुड़ी ने बस सामने-सामने से यूँ ही झाड़ू मार दी कि मैं क्यों करूं।
कल बाई आएगी तो सब अच्छे से करेंगी ही न। वह क्या करेगी नहीं तो आकर !
मैं सोच में पड़ गई कि घर किसका है, बहन का या बाई का ? सफाई की जिम्मेदारी ज्यादा किसकी है ? बहन अपने घर को किसका समझ रही है ?

 

जन्म का रिश्ता हैं माता-पिता से

एक वृद्ध माँ रात को 11:30 बजे रसोई में बर्तन साफ कर रही है, घर में दो बहुएँ हैं, जो बर्तनों की आवाज से परेशान होकर अपने पतियों को सास को उल्हाना देने को कहती हैं
वो कहती है आपकी माँ को मना करो इतनी रात को बर्तन धोने के लिये हमारी नींद खराब होती है
साथ ही सुबह 4 बजे उठकर फिर खट्टर पट्टर शुरू कर देती है सुबह 5 बजे पूजा आरती करके हमे सोने नही देती ना रात को ना ही सुबह जाओ सोच क्या रहे हो जाकर माँ को मना करो
बड़ा बेटा खड़ा होता है और रसोई की तरफ जाता है
रास्ते मे छोटे भाई के कमरे में से भी वो ही बाते सुनाई पड़ती जो उसके कमरे हो रही थी
वो छोटे भाई के कमरे को खटखटा देता है छोटा भाई बाहर आता है
दोनो भाई रसोई में जाते हैं, और माँ को बर्तन साफ करने में मदद करने लगते है , माँ मना करती पर वो नही मानते, बर्तन साफ हो जाने के बाद दोनों भाई माँ को बड़े प्यार से उसके कमरे में ले जाते है , तो देखते हैं पिताजी भी जागे हुए हैं
दोनो भाई माँ को बिस्तर पर बैठा कर कहते हैं, माँ सुबह जल्दी उठा देना, हमें भी पूजा करनी है, और सुबह पिताजी के साथ योगा भी करेंगे
माँ बोली ठीक है बच्चों, दोनो बेटे सुबह जल्दी उठने लगे, रात को 9:30 पर ही बर्तन मांजने लगे, तो पत्नियां बोलीं माता जी करती तो हैं आप क्यों कर रहे हो बर्तन साफ, तो बेटे बोले हम लोगो की
शादी करने के पीछे एक कारण यह भी था कि माँ की सहायता हो जायेगी पर तुम लोग ये कार्य नही कर रही हो कोई बात नही हम अपनी माँ की सहायता कर देते है
हमारी तो माँ है इसमें क्या बुराई है , अगले तीन दिनों में घर मे पूरा बदलाव आ गया बहुएँ जल्दी बर्तन इसलिये साफ करने लगी की नही तो उनके पति बर्तन साफ करने लगेंगे
साथ ही सुबह भी वो भी पतियों के साथ ही उठने लगी और पूजा आरती में शामिल होने लगी
कुछ दिनों में पूरे घर के वातावरण में पूरा बदलाव आ गया बहुएँ सास ससुर को पूरा सम्मान देने लगी
माँ का सम्मान तब कम नही होता जब बहुवे उनका सम्मान नही करती , माँ का सम्मान तब कम होता है जब बेटे माँ का सम्मान नही करे या माँ के कार्य मे सहयोग ना करे

 

हाथी क्यों हारा

एक बार एक व्यक्ति, एक हाथी को रस्सी से बांध कर ले जा रहा था।
एक दूसरा व्यक्ति इसे देख रहा था।
उसे बढ़ा आश्चर्य हुआ की इतना बड़ा जानवर इस हलकी से रस्सी से बंधा जा रहा है।
दूसरे व्यक्ति ने हाथी के मालिक से पूछा ” यह कैसे संभव है की इतना बड़ा जानवर एक हलकी सी रस्सी को नहीं तोड़ पा रहा और तुम्हारे पीछ- पीछे चल रहा है।
हाथी के मालिक ने बताया जब ये हाथी छोटे होते हैं तो इन्हें रस्सी से बांध दिया जाता है उस समय यह कोशिश करते है रस्सी तोड़ने की पर उसे तोड़ नहीं पाते।
बार- बार कोशिश करने पर भी यह उस रस्सी को नहीं तोड़ पाते तो हाथी सोच लेते है की
वह इस रस्सी को नही तोड़ सकते और बढे होने पर कोशिश करना ही छोड़ देते है।
दोस्तों हम भी ऐसी बहुत सी नकारात्मक बातें अपने दिमाग में बैठा लेते हैं की हम नहीं कर सकते।
और एक ऐसी ही रस्सी से अपने को बांध लेते हैं जो सच में होती ही नहीं है।

 

एक ईमानदार लड़का

एक गांव में एक लड़का रहता था।
उसके घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी।
उसके मन में विचार आया किसी बड़े शहर में जाकर वह नौकरी करे।
वह कलकत्ता गया और नौकरी ढूंढने लगा।
बहुत खोज के बाद उसे एक सेठ के घर में नौकरी मिल गयी।
नौकरी छेह अने रोज़ की थी।
काम था सेठ को रोज़ 6 घंटे अख़बार और किताब पढ़कर सुनाना लड़के को नौकरी की ज़रूरत थी तो उसने वह नौकरी स्वीकार कर ली।
एक दिन की बात है लड़के को दुकान के कोने में 100-100 के 8 नोट पड़े मिले।
उसने चुपचाप उन्हें अख़बार और किताबो से ढक दिया।
दूसरे दिन रुपयों की खोजबीन हुई। लड़का सुबह जब दुकान पर आया तो उससे पूछा गया।
लड़के ने तुरंत ही प्रसनन्ता से रूपये निकालकर ग्राहक को दे दिए।
वह बहुत ही खुश हुआ। लड़के के ईमानदारी से सबको बहुत प्रसनन्ता हुई।
सेठ भी लड़के से बहुत खुश हुआ। सेठ ने लड़के को पुरस्कार देना चाहा तो लड़के ने लेने से मना कर दिया।
लड़के ने कहा सेठ जी में आगे पढ़ना चाहता हु। पर पैसो के आभाव ने पढ़ नहीं पा रहा। आप कुछ सहयता कर दें।
सेठ ने लड़के की पढ़ाई का प्रवन्ध कर दिया। लड़का बहुत मेहनत से पढता गया।
यही लड़का आगे चलकर बहुत बढ़ा सहित्यकार बना। इसका नाम था – राम नरेश त्रिपाठी। हिंदी साहित्य में इनका बहुत बढ़ा योगदान है।
ईमानदार मनुष्य ईश्वर की सर्वोत्तम रचना है ।

 

अंगुलिमार की कहानी

एक बार गौतम बुद्ध कोसला के जंगलो से गुजर रहे थे
तभी उन्होंने सुना की इन जंगलो में कोई व्यक्ति इतना दुष्ट है वह लोगो की उँगलियाँ काटकर उनकी माला बनाकर पहनता है।
उसने 100 लोगो की ऊँगली पहनने का प्रण लिया है।
गौतम बुद्धा को बहुत अफ़सोस हुआ की यह व्यक्ति अपने जीवन को कैसे बिगड़ रहा है।
उन्होंने उससे मिलने का निश्चय किया और जहाँ वह रहता था वहां जाने लगे।
अंगुलिमार गौतम बुद्ध को आता हुआ देकर चिल्लाया की लौट जाओ वर्णा में तुम्हे मारकर तम्हारी ऊँगली अपनी माला में पहन लूंगा।
पर गौतम बुद्ध को उस पर बहुत करुणा थी की ये कैसे भी ये काम छोड़ दे की संतो का स्वभाव होता है की उनके ह्रदय में सबके प्रति करुणा होती है की सबका जीवन सवाँरे।
गौतम बुद्ध अंगुलिमार की तरफ चलते गए अंगुलिमार को बड़ा आश्चर्य हुआ की लोग मुझसे दूर भागते हैं।
ये मेरे मना करने पर भी मेरे पास आ रहे हैं ।
इन्हे मुझसे डर भी नहीं लग रहा तभी अंगुलिमार से गौतम बुद्ध ने कहा की तुम मुझे मारना चाहते हो तो मार देना पर पहले मेरे एक सवाल का जवाव दो
सामने पेड़ लगा है उसकी एक डंडी तोड़ लाओ अनुगलीमर सामने से पेड़ की डंडी थोड़ लाया तभी गौतम बुद्ध ने कहा अब इस डंडी को पेड़ में जोड़ आओ।
अंगुलिमार ने कहा ऐसा कैसे हो सकता है गौतम बुद्ध ने कहा कोशिश करो हो जाएगा।
अनुगीमार ने कोशिश की पर डंडी पेड़ से नहीं जुडी।
तभी गौतम बुद्ध ने उसे समझाया की तुम पेड़ से जैसे डंडी तोड़ तो सकते हो पर जोड़ नहीं सकते ।
इसी तरह तुम आदमियों को मार तो सकते हो पर उन्हें जिन्दा नहीं कर सकते।
अनुगलीमर का इस वचन का बहुत प्रभाव पड़ा और उसने लोगो को मारना छोड़ दिया और गौतम बुद्ध का शिष्य बन गया।

 

सबसे बड़ी सिख देने वाली कहानी

एक समय की बात है, एक जंगल में सेब का एक बड़ा पेड़ था ।
एक बच्चा रोज उस पेड़ पर खेलने आया करता था ।
वह कभी पेड़ की डाली से लटकता, कभी फल तोड़ता, कभी उछल कूद करता था, सेब का पेड़ भी उस बच्चे से काफ़ी खुश रहता था ।
कई साल इस तरह बीत गये ।
अचानक एक दिन बच्चा कहीं चला गया और फिर लौट के नहीं आया, पेड़ ने उसका काफ़ी इंतज़ार किया पर वह नहीं आया अब तो पेड़ उदास हो गया था ।
काफ़ी साल बाद वह बच्चा फिर से पेड़के पास आया पर वह अब कुछ बड़ा हो गया था । पेड़ उसे देखकर काफ़ी खुश हुआ और उसे अपने साथ खेलने के लिए कहा ।
पर बच्चा उदास होते हुए बोला कि अब वह बड़ा हो गया है अब वह उसके साथ नहीं खेल सकता. बच्चा बोला की, “अब मुझे खिलोने से खेलना अच्छा लगता है, पर मेरे पास खिलोने खरीदने के लिए पैसे नहीं है”
पेड़ बोला, “उदास ना हो तुम मेरे फल (सेब) तोड़ लो और उन्हें बेच कर खिलोने खरीद लो ।
बच्चा खुशी खुशी फल (सेब) तोड़के ले गया लेकिन वह फिर बहुत दिनों तक वापस नहीं आया. पेड़ बहुत दुखी हुआ ।
अचानक बहुत दिनों बाद बच्चा जो अब जवान हो गया था वापस आया, पेड़ बहुत खुश हुआ और उसे अपने साथ खेलने के लिए कहा ।
पर लड़के ने कहा कि, “वह पेड़ के साथ नहीं खेल सकता अब मुझे कुछ पैसे चाहिए क्यूंकी मुझे अपने बच्चों के लिए घर बनाना है । ”
पेड़ बोला, “मेरी शाखाएँ बहुत मजबूत हैं तुम इन्हें काट कर ले जाओ और अपना घर बना लो अब लड़के ने खुशी-खुशी सारी शाखाएँ काट डालीं और लेकर चला गया । उस समय पेड़ उसे देखकर बहोत खुश हुआ लेकिन वह फिर कभी वापस नहीं आया. और फिर से वह पेड़ अकेला और उदास हो गया था ।
अंत में वह काफी दिनों बाद थका हुआ वहा आया ।
तभी पेड़ उदास होते हुए बोला की, “अब मेरे पास ना फल हैं और ना ही लकड़ी अब में तुम्हारी मदद भी नहीं कर सकता ।
बूढ़ा बोला की, “अब उसे कोई सहायता नहीं चाहिए बस एक जगह चाहिए जहाँ वह बाकी जिंदगी आराम से गुजार सके.” पेड़ ने उसे अपनी जड़ो मे पनाह दी और बूढ़ा हमेशा वहीं रहने लगा ।
यही कहानी आज हम सब की भी है । मित्रों इसी पेड़ की तरह हमारे माता-पिता भी होते हैं, जब हम छोटे होते हैं तो उनके साथ खेलकर बड़े होते हैं और बड़े होकर उन्हें छोड़ कर चले जाते हैं और तभी वापस आते हैं जब हमें कोई ज़रूरत होती है । धीरे-धीरे ऐसे ही जीवन बीत जाता है । हमें पेड़ रूपी माता-पिता की सेवा करनी चाहिए ना की सिर्फ़ उनसे फ़ायदा लेना चाहिए । इस कहानी में हमें दिखाई देता है की उस पेड़ के लिए वह बच्चा बहुत महत्वपूर्ण था, और वह बच्चा बार-बार जरुरत के अनुसार उस सेब के पेड़ का उपयोग करता था । ये सब जानते हुए भी की वह उसका केवल उपयोग ही कर रहा है । इसी तरह आज-कल हम भी हमारे माता-पिता का जरुरत के अनुसार उपयोग करते है और बड़े होने पर उन्हें भूल जाते है । हमें हमेशा हमारे माता-पिता की सेवा करनी चाहिये, उनका सम्मान करना चाहिये । और हमेशा, भले ही हम कितने भी व्यस्त क्यू ना हो उनके लिए थोडा समय तो भी निकलते रहना चाहिये ।